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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[भगवान् पाश्वनाथ
की उपेक्षा तक करते थे। इससे हम इस निर्णय पर पहुंचते हैं कि बुद्ध के समय निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय कोई नवीन स्थापित संप्रदाय नहीं था। यही मत पिटकों का भी जान पड़ता है।'
मज्झिम निकाय के महासिंहनाद सूत्र में बुद्ध ने अपनी कठोर तपस्या का वर्णन करते हुए तप के चार प्रकार बतलाये हैं, जो इस प्रकार हैं :-(१) तपस्विता, (२) रुक्षता, (३) जुगुप्सा और (४) प्रविविक्तता। इनका अर्थ है तपस्या करना, स्नान नहीं करना, जल की बूंद पर भी दया करना और एकान्त स्थान में रहना। ये चारों तप निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय के होते थे। स्वयं भगवान महावीर ने इनका पालन किया था और अन्य निर्ग्रन्थों के लिये इनका पालन प्रावश्यक था।
बौद्ध साहित्य दीर्घ निकाय में अजातशत्रु द्वारा भगवान् महावीर और उनके शिष्यों को चातुर्याम-युक्त कहलाया है । यथा :
"भंते ! मैं निगन्ठ नातपुत्र के पास भी गया और उनसे श्रामण्यफल के विषय में पूछा। उन्होंने चातुर्याम संवरद्वार बतलाया और कहा, निगण्ठ चार संवरों से युक्त होता है, यथा :-(१) वह जल का व्यवहार वर्जन करता है जिससे कि जल के जीव न मरें, (२) सभी पापों का वर्जन करता है, (३) पापों के वर्जन से धुत-पाप होता है और (४) सभी पापों के वर्जन से लाभ रहता है।"
पर जैन साहित्य की दृष्टि से यह पूर्णतया सिद्ध है कि भगवान् महावीर की परम्परा पंचमहाव्रत रूप रही है, फिर भी उसे चातुर्याम रूप से कहना इस बात की ओर संकेत करता है कि बौद्धभिक्ष पार्श्वनाथ की परम्परा से परिचित रहे हैं और उन्होंने महावीर के धर्म को भी उसी रूप में देखा है । हो सकता है बद्ध और उनके अनुयायी विद्वानों को, श्रमण भगवान महावीर की परम्परा में जो आन्तरिक परिवर्तन हुआ, उसका पता न चला हो । बुद्ध के पूर्व की यह चातुर्याम परम्परा भगवान् पार्श्वनाथ की ही देन थी। इससे यह प्रमाणित होता है कि बद्ध पार्श्वनाथ के धर्म से परिचित थे।२
बौद्ध वाङमय के प्रकांड पंडित धर्मानन्द कौशाम्बी ने लिखा है :निर्ग्रन्थों के श्रावक ‘बप्प' शाक्य के उल्लेख से स्पष्ट है कि निर्ग्रन्थों का चातुर्याम धर्म शाक्य देश में प्रचलित था, परन्तु ऐसा उल्लेख कहीं नहीं मिलता कि उस देश में निर्ग्रन्थों का कोई प्राश्रम हो। इससे ऐसा लगता है कि निग्रन्थ
१ इण्डियन एन्टीक्वेरी, जिल्द ६, पृ० १६० । २ मज्झिम निकाय महासिंहनाद सुत्त, १० ४८-५० । ३ चातुर्याम (धर्मानन्द कौशाम्बी)
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