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________________ "आचार्यश्री ! सादर बहुमान पूर्वक वन्दणा । "जैन धर्म का मौलिक इतिहास" के रोचक आपने इस प्रकरण एवं आपकी प्रस्तावना पढ़ी। .... ग्रन्थ में जैन इतिहास की गुत्थियों को सुलझाने में जो परिश्रम किया है, जैसी तटस्थता दिखाई है, वह दुर्लभ है। बहुत काल तक आपका यह इतिहास- ग्रन्थ प्रामाणिक इतिहास के रूप में कायम रहेगा। नये तथ्यों की संभावना अब कम ही है । जो तथ्य आपने एकत्र किये हैं और उनको यथास्थान सजाया है, वह एक सुज्ञ इतिहास के विद्वान् के योग्य कार्य है । इस ग्रन्थ को पढ़कर आपके प्रति जो आदर था, वह और भी बढ़ गया है। आशा है, ऐसा ही आगे के भागों में भी आप करेंगे। ये हैं लब्ध प्रतिष्ठ शोधकर्ता विद्वान् दलसुख भाई मालवणियाँ के इस अमर ऐतिहासिक कृति और इसके रचनाकार इतिहास - मार्तण्ड आचार्यश्री के. भागीरथ प्रयास के सम्बन्ध में हार्दिक उद्गार ! एक गवेषक विद्वान् ही गवेषक विद्वान् के श्रम का सही आंकलन कर सकता है। यह पराकाष्ठा है सही मूल्यांकन की ! आचार्यश्री और इनकी ऐतिहासिक अमर कृति के सम्बन्ध में इससे अधिक और क्या लिखा जा सकता है ? सन् १९७५ के अन्तिम चरण में "जैन धर्म का मौलिक इतिहास - तृतीय भाग” के लिए सामग्री एकत्रित करने का कार्य प्रारम्भ कर दिया गया। देवर्द्धि गणि क्षमाश्रमण के स्वार्गारोहण के पश्चात् चैत्यवासी परम्परा अपनी नई-नई मान्यताओं के साथ जैन जगत् पर छा गई थी। लगभग सात सौ आठ सौ वर्षों तक भारत के विभिन्न भागों में चैत्यवासी परम्परा का एकाधिपत्य रहा । भगवान् महावीर की विशुद्ध मूल परम्परा के साधु-साध्वियों का उत्तर भारत के जनपदों में विचरण तो दूर रहा, प्रवेश तक पर राजमान्य चैत्यवासी परम्परा ने राज्य की ओर से प्रतिबन्ध लगवा दिया । फलस्वरूप मूल परम्परा के श्रमण, श्रमणियों एवं श्रावक-श्राविकाओं की संख्या देश के सुदूरस्थ प्रदेशों में अंगुलियों पर गिनने योग्य रह गई । विशुद्ध श्रमण धर्म में मुमुक्षुओं का दीक्षित होना तो दूर, अनेक प्रान्तों में विशुद्ध श्रमणाचार का नाम तक लोग प्रायः भूल गये । नवोदिता चैत्यवासी परम्परा को ही लोग भगवान् की मूल विशुद्ध परम्परा मानने लगे । वस्तुतः उस संक्रांति - काल में विशुद्ध मूल परम्परा क्षीण से क्षीणतर होती गई और वह लुप्त तो नहीं; किन्तु सुप्त अथवा गुप्त अवश्य हो गई । वीर नि. Jain Education International ( ७ ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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