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आदि प्राकृत ग्रन्थों, सर मोन्योर की मोन्योर-मोन्योर संस्कृत टू इंग्लिश डिक्शनेरी आदि आंग्ल भाषा के ग्रन्थों, त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, आदि पुराण, महापुराण, वेदव्यास के सभी पुराणों के साथ-साथ हरिवंश पुराण आदि संस्कृत ग्रन्थों और पुष्पदन्त के महापुराण आदि अपभ्रंश के ग्रन्थों का आलोडन किया गया और पर्युषण पर्व से पूर्व ही “जैन धर्म का मौलिक इतिहास' पहला भाग की पाण्डुलिपि का चतुर्थांश और मेड़ता चातुर्मासावासावधि के समाप्त होते-होते पाण्डुलिपि का शेष अन्तिम अंश भी प्रेस में दे दिया गया। प्रथम भाग के पूर्ण होते ही मेड़ता धर्म स्थानक में इतिहास के द्वितीय भाग का आलेखन भी प्रारम्भ कर दिया गया। जैन धर्म के इतिहास के अभाव की चतुर्थांश पूर्ति से आचार्यश्री को बड़ा प्रमोद हुआ, जैन समाज में हर्ष की लहर तरंगित हो उठी और इतिहास-समिति का उत्साह शतगुणित हो अभिवृद्ध हुआ। प्रथम भाग के प्रकाशन के साथ-साथ ही इतिहास-समिति ने इसी के अन्तिम अंश को "ऐतिहासिक काल के तीन तीर्थंकर" नाम से एक पृथक् ग्रन्थ के रूप में प्रकाशित करवाया । सन् १९७१ के वर्षावास काल में ये दोनों ग्रन्थ मुद्रित हो सर्वतः सुन्दर रूप लिये समाज, इतिहासज्ञों और इतिहास प्रेमियों के करकमलों में पहुंचे। सन्तों, सतियों, श्रावकों, श्राविकाओं, श्वेताम्बर, दिगम्बर, जैन-अजैन सभी परम्पराओं के विद्वानों ने भावपूर्ण शब्दों में मुक्तकण्ठ से इस ऐतिहासिक कृति की और आचार्यश्री की भूरि-भूरि प्रशंसा की।
आचार्यश्री की लेखनी में एक ऐसा अद्भुत चमत्कार है कि आपने इतिहास जैसे शुष्क-नीरस विषय को ऐसा सरस-रोचक एवं सम्मोहक बना दिया है कि सहस्रों श्रद्धालु और सैकड़ों स्वाध्यायी प्रतिदिन इसका पारायण करते हैं।
__सन् १९७४ में आचार्यश्री ने "जैन धर्म का मौलिक इतिहास" दूसरा भाग भी पूर्ण कर दिया। १९७५ में इतिहास-समिति ने इसे प्रकाशित किया। इसकी भी प्रथम भाग की ही तरह भूरि-भूरि प्रशसा और हर्ष के साथ समाज में स्वागत किया गया। आचार्यश्री के अथाह ज्ञान, अथक श्रम और इस इतिहास ग्रन्थ की प्रामाणिकता एवं सर्वांगपूर्णता के सम्बन्ध में एक शब्द भी कहने के स्थान पर इस ग्रन्थ के सम्बन्ध में जैन समाज के सर्वमान्य उच्च कोटि के विद्वान श्री दलसुख भाई मालवणियां के आन्तरिक उद्गार ही उद्धृत कर देना हम पर्याप्त समझते हैं। श्री मालवणियां ने लिखा है
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