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सं. १५५४ में वनवासी वर्द्धमान सूरि के शिष्य जिनेश्वर सूरि ने दुर्लभराज की सभा में चैत्यवासी परम्परा के आचार्यों को शास्त्रार्थ में परास्त कर चैत्यवासी परम्परा पर गहरा घातक प्रहार किया। तदनन्तर अभय देव सूरि के शिष्य जिन वल्लभ सूरि वीर नि.सं. १६३७ तक चैत्यवासी परम्परा के उन्मूलन में निरत रहे। अन्ततोगत्वा जिस चैत्यवासी परम्परा ने भगवान् महावीर की विशुद्ध मूल परम्परा को पूर्णतः नष्ट कर देने के लगभग सात सौ-आठ सौ वर्ष तक निरन्तर प्रयास किये, उनकी पट्ट-परम्पराओं को नष्ट किया, उसके स्मृति चिह्नों तक को निरवशिष्ट करने के प्रयास किये, वह चैत्यवासी परम्परा भी अन्ततोगत्वा वीर निर्वाण की बीसवीं शताब्दी के आते-आते इस धरातल से विलुप्त हो गई। यह आश्चर्य की बात है कि जो चैत्यवासी परम्परा देश में बहुत बड़े भाग पर ७-८ शताब्दियों तक छाई रही, उसकी मान्यता के ग्रन्थ, पट्टावलियाँ आदि के रूप में कोई साक्ष्य आज कहीं नाममात्र के लिए भी उपलब्ध नहीं है।
___ इन्हीं कारणों से देवर्द्धि क्षमाश्रमण के पश्चात् काल के इतिहास की कड़ियों को खोजने और उसे शृंखलाबद्ध व क्रमबद्ध बनाने में बड़े लम्बे समय तक कड़ा श्रम करना पड़ा, अनेक कठिनाइयों को झेलना पड़ा। एक बार तो घोर निराशा सी हुई किन्तु पन्यास श्री कल्याण विजयजी महाराज द्वारा लिखी गई अनेक नोटबुकों को सूक्ष्म शोध दृष्टि से पढ़ने पर विशुद्ध मूल परम्परा के एक दो संकेत मिले। महा निशीथ, तित्थोगाली पइन्नय, जिनवल्लभ सूरि संघ पट्टक, मद्रास यूनिवर्सिटी के प्रांगण में अवस्थित ओरियन्टल मेन्युस्क्रिप्ट्स लायब्रेरी, मेकेन्जी कलेक्शन्स आदि से तथा पुराने जर्नल्स के अध्ययन से आशा बंधी कि वीर नि. सं. १००० से २००० तक का तिमिराच्छन्न इतिहास भी अब अप्रत्याशित रूप से प्रकाश में लाया जा सकेगा। यापनीय संघ के सम्बन्ध में यथाशक्य पर्याप्त खोज की गई। उस खोज के समय भट्टारक परम्परा के उद्भव एवं विकास के सम्बन्ध में तो ३४९ श्लोकों का एक ग्रन्थ मेकेन्जी के संग्रह में प्राप्त हो गया। कर्नाटक में यापनीय संघ के सम्बन्ध में भी थोड़े बहुत ऐतिहासिक तथ्य मिले। इन सभी को आधार बनाकर अब तक जैन इतिहास के चारों भार प्रकाशित किए जा चुके हैं।
इस ग्रन्थ के प्रणयन-परिवर्द्धन-परिमार्जन में श्रद्धेय स्व. आचार्य श्री हस्तीमलजी महाराज सा. ने जो कल्पनातीत श्रम किया था इसके लिए इन महासन्त के प्रति आन्तरिक आभार प्रकट करने हेतु कोष में उपयुक्त शब्द ही नहीं है। स्व. आचार्यश्री के सुशिष्य वर्तमान आचार्य प्रवर हीराचन्द्र जी म.
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