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सापक श्रेणी
कुलकर केवलज्ञान
गच्छ
गायापति धाती-कर्म
च्यवन
छपस्थ
- क्रोध, मान, माया, लोभ मादि मोह-कर्म की प्रकृतियों को कमिक
क्षय करने की पद्धति । - दस कोड़ाकोड़ी सागर के एक प्रवसर्पिणीकाल बौर बस कोड़ा.
कोड़ी सागर के एक उत्सर्पिणीकाल को मिलाने पर बीस कोड़ा
कोड़ी सागर का एक कालचक्र कहलाता है। - कुल की व्यवस्था करने वाला विशिष्ट पुरुष । - ज्ञानावरणीय कर्म को पूर्णरूपेण भय करने पर बिना मन पौर
इन्द्रियों की सहायता के केवल प्रात्मसाक्षात्कार से सम्पूर्ण संसार के समस्त पदार्थों की तीनों काल की सभी पर्यायों को हस्तामलक
के समान युगपद जानने वाला सर्वोत्कृष्ट पूर्णज्ञान । - एक प्राचार्य का श्रमण परिवार। - एक अत्यन्त वैभवशाली सम्पन्न परिवार का गृहस्वामी । - पात्मिक गुणों की हानि करने वाले ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय,
मोहनीय और अन्तराय नामक चार कर्म । - देव-गति की प्रायु पूर्ण कर प्राणी का अन्य गति में जाना। - ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय नामक चार
छद्म (घाती) कर्मों के प्रावरणों से प्राच्छादित प्रात्मा । - मति-ज्ञान का वह भेद, जिसके द्वारा प्राणी को अपने एक से
लेकर नौ पूर्व-भवों तक का ज्ञान हो जाता है । -- एक मान्यता यह भी है कि जातिस्मरण ज्ञान से प्राणी को अपने - ६०० पूर्व भवों तक का स्मरण हो सकता है । - राग-द्वेष पर पूर्ण रूप से विजय प्राप्त करने वाली प्रात्मा। - देवों का प्रिय । एक स्नेह पूर्ण सम्बोधन । - गणधरों द्वारा प्रथित बारह अंग शास्त्र । - प्रगाढ चिक्करण कर्म-बन्ध, जिसका फल अनिवार्य रूप से भोगना
ही पड़ता है। - विविध अवस्थामों में परिणमन (परिवर्तन) करते हुए मूल द्रव्य
रूप से विद्यमान रहना। - क्षुधा प्रादि कष्ट, जो साधुओं द्वारा सहन किये जायें। - एक योजन (४ कोस) लम्बे, चौड़े और गहरे कुए को एक दिन
से लेकर सात दिन तक की आयु वाले उत्तरकुरु के यौगलिक शिशुओं के सूक्ष्मातिसूक्ष्म केश-खण्डों से (प्रत्येक केश के प्रसंख्यात
नातिस्मरण-जान
जिन .. देवानुप्रिय द्वादशांगी निकाचित-कर्म
परिणामी-नित्य
परिषह-परीवह पस्योपम
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