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________________ पारिभाषिक शब्दार्थानुक्रमणिका - तीर्थंकरों से अर्थ (वाणी) सुनकर गणधरों द्वारा प्रथित सूत्र । अकल्पनीय . - सदोष अग्राह्य वस्तु । अचाती-कर्म - पात्मिक गुणों की हानि नहीं करने वाले प्रायु, नाम, गोत्र और - वेदनीय नामक पार कर्म । अतिशय - सर्वोत्कृष्ट विशिष्ट गुण। अन्तराय-कर्म - लाभ प्रादि में बाधा पहुंचाने वाला कर्म । अनुत्तरोपपातिक - अनुत्तर-विमान में जाने वाले जीव । अपूर्वकरण गुणस्थान - पाठवें गुणस्थान में स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणी और गुणसंक्रमण मादि अपूर्व क्रियाएं होती हैं। अत: उसे प्रपूर्वकरण कहते हैं। अभिग्रह - गुप्त प्रतिमा। प्रवाह - पांच इन्द्रियों एवं मन से ग्रहण किया जाने वाला मति ज्ञान का एक भेद । मवपिरलोकाल - कालचक्र का दस कोटाकोटि सागर की स्थिति वाला वह प्रभाग, जिसमें पुद्गलों के वर्ण, गन्ध, रूप, रस, स्पर्श एवं प्राणियों की आयु, अवगाहना, संहनन, संस्थान, बल-वीर्य प्रादि का क्रमिक अपकर्ष होता है। अयोगी-भाव - योगरहित बौदहवें गुणस्थान में होने वाली प्रात्मपरिणति । माचाम्लबत - वह तपस्या, जिसमें सखा भोजन दिन में एक बार प्रचित जल के साथ ग्रहण किया जाता है। पारा-अपना-मारक - प्रवसपिणी एवं उत्सपिणी के छः-यः काल-विभाग । उत्सपिनी-काल - अपकर्षान्मुख अवपिणीकाल के प्रतिलोम (उल्टे) क्रम से - उत्कर्षोन्मुख दस कोटाकोटि सागरोपम की स्थिति बाला काल । पान - द्वादमांगो में वरिणत विषय को स्पष्ट करने हेतु श्रुतकेवली अथवा पूर्वपर बाचार्यों द्वारा रचित पागम । -- भोग-युग के मानव को सभी प्रकार की आवश्यक सामग्री देने गाने वृक्ष। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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