SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 913
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८४६ पौषष पौष शाला प्रक्रिमण माडलिक-राजा युग खण्ड कर) इस प्रकार कूट-कूट कर ठसाठस भर दिया जाय कि यदि उस पर से चक्रवर्ती की पूरी सेना निकल जाय तो भी वह अंश मात्र लचक न पाये, न उसमें जल प्रवेश कर सके और न अग्नि ही जला सके । उसमें से एक-एक केश-खण्ड को सौ-सौ वर्षों के अन्तर से निकालने पर जितने समय में वह कूमां केश-खण्डों से पूर्णरूपेण रिक्त हो, उतने असंख्यात वर्षों का एक पल्योपम होता है। - सत्तर लाख, छप्पन हजार करोड़ वर्ष का एक पूर्व । - एक दिन व एक रात तक के लिये चारों प्रकार के प्राहार व अशुभ-प्रवृत्तियों का त्याग धारण करना। - वह स्थान जहाँ पर पौषध प्रादि धर्म-क्रिया की जाय । - अशुभ योगों को त्याग कर शुभ योगों में जाना । - एक मण्डल का अधिपति । - कृत या सत्ययुग १७,२८,००० वर्ष - त्रेतायुग १२,९६,००० वर्ष - द्वापरयुग ८,६४,००० वर्ष - कलियुग ४,३२,००० वर्ष कुल ४३,२०,००० वर्ष ऐसा माना जाता है कि युगों की उत्तरोत्तर घटती हुई अवधि के अनुसार शारीरिक और नैतिक शक्ति भी मनुष्यों में बराबर गिरती गई है। सम्भवत: इसीलिये कृतयुग को स्वर्णयुग और कलियुग को लोहयुग कहते हैं । [संस्कृत-हिन्दी कोष : वामन शिवराम प्राप्टे कृत, पेज ८३६, सन् १९६६, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली द्वारा प्रकाशित] [संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी, पेज ८५४, एम. मोन्योर विलियम कृत, १९७० एडीशन] [युगचतुष्टय सम्बन्धी विस्तृत विवेचन 'शब्द कल्पद्रुम', चतुर्थ काण्ड, पृष्ठ ४३-४४ पर भी देखें - भूमि प्रादि के प्रमार्जन हेतु काम में प्राने वाला जैन श्रमणों का एक उपकरण-विशेष । - ब्रह्म नाम के पांचवें देवलोक के छः प्रतरों (मंजिलों) में से तीसरे परिष्ट नामक प्रतर के पास दक्षिण दिशा में स्थित प्रसनाड़ी के मन्दर पाठों दिशा-बिदिशामों की पाठ-कृष्ण, राजियों में तथा मध्यभाग में स्थित (१) पर्चि, (२) पर्चिमाल, (३) वैरोचन. रजोहरण लोकान्तिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy