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जैन धर्म का मौलिक इतिहास [साधना का ग्यारहवां वर्ष निकले । उन्होंने उन उपद्रवी बालकों को हटाया और स्वयं प्रभु की वंदन कर आगे बढ़े।'
वैशाली से भगवान् 'वारिणयगाम' की ओर चले। मार्ग में गंडकी नदी पार करने के लिए उन्हें नाव में बैठना पड़ा। पार पहुंचने पर नाविक ने किराया माँगा पर भगवान मौनस्थ रहे । नाविक ने ऋद्ध होकर किराया न देने के कारण भगवान् को तवे सी तपी हुई रेत पर खड़ा कर दिया। संयोगवश उस समय 'शंख' राजा का भगिनी-पुत्र 'चित्र' वहाँ आ पहुँचा। उसने समझा कर नाविक से प्रभु को मुक्त करवाया।
आगे चलते हुए भगवान् 'वारिणयग्राम' पहुंचे। वहाँ 'आनन्द' नामक श्रमणोपासक को शवधिज्ञान की उपलब्धि हुई थी। वह बेले-बेले की तपस्या के साथ आतापना करता था। उसने तीर्थंकर महावीर को देख कर वंदन किया
और बोला-"आपका शरीर और मन वज्र सा दृढ़ है, इसलिए आप कठोर से कठोर कष्टों को भी मुस्कुराते हुए सहन कर लेते हैं । आपको शीघ्र ही केवलज्ञान उत्पन्न होने वाला है।" यह उपासक 'प्रानन्द' पार्श्वनाथ की परम्परा का था, भगवान महावीर का अन्तेवासी 'पानन्द' नहीं ।
'वारिणयग्राम' से विहार कर भगवान ‘सावत्थी' पधारे और विविध प्रकार की तपस्या एवं योग-साधना से आत्मा को भावित करते हुए वहाँ पर दशवाँ चातुर्मास पूर्ण किया ।
साधना का ग्यारहवाँ वर्ष
'सावत्या' से भगवान् ने 'सानुला?य' सन्निवेश की ओर विहार किया। वहाँ सोलह दिन के निरन्तर उपवास किये और भद्र प्रतिमा, महाभद्र प्रतिमा एवं सर्वतोभद्र प्रतिमाओं द्वारा विविध प्रकार से ध्यात की साधना करते रहे। भद्र आदि प्रतिमाओं में प्रभु ने निम्न प्रकार से ध्यान की साधना की।
__ भद्र प्रतिमा में पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशा में चार-चार प्रहर ध्यान करते रहे। दो दिन की तपस्या का बिना पारणा किये प्रभु ने महाभद्र प्रतिमा अंगीकार की। इसमें प्रति दिशा में एक-एक अहोरात्र पयंत ध्यान किया। फिर इसका विना पारणा किये ही सर्वतोभद्र प्रतिमा की आराधना प्रारम्भ की। इसमें दश दिशाओं के क्रम से एक-एक अहोरात्र ध्यान करने से दस दिन हो
१ प्राव. चू., २६६ २ आव. चू., पृ. २६६ ३ प्राव. च. पृ० ३००
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