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________________ साधना का दशम वर्ष] भगवान् महावीर ५६७ PORY गोशालक ने भगवान के वचन को मिथ्या प्रमाणित करने की दष्टि से उस पौधे को उखाड़ कर एक किनारे फेंक दिया। संयोगवश उसी समय थोड़ी वर्षा हुई और तिल का उखड़ा हुआ पौधा पुनः जम कर खड़ा हो गया। फिर भगवान् 'कर्मग्राम'२ आये। वहाँ गाँव के बाहर 'वैश्यायन' नाम का तापस प्राणायाम-प्रव्रज्या से सूर्यमंडल के सम्मुख दृष्टि रख कर दोनों हाथ ऊपर उठाये आतापना ले रहा था । धूप से संतप्त हो कर उसकी बड़ी बड़ी जटाओं से यूकाएं नीचे गिर रही थीं और वह उन्हें उठा कर पुनः जटाओं में रख रहा था। गोशालक ने देखा तो कुतूहलवश वह भगवान् के पास से उठकर तपस्वी के पास पाया और बोला- "अरे ! त कोई तपस्वी है या जों का शय्यातर (घर)?" तपस्वी चुप रहा । जब गोशालक बार वार इस बात को दुहराता रहा तो तपस्वी को क्रोध आ गया। प्रातापना भूमि से सात आठ पग पीछे जाकर उसने जोश में तपोबल से प्राप्त अपनी तेजो-लब्धि गोशालक को भस्म करने के लिये छोड़ दी । अब क्या था ! गोशालक मारे भय के भागा और प्रभु के चरणों में आकर छिप गया। दयालु प्रभु ने उस समय गोशालक की अनुकम्पा के लिये शोतल लेश्या से उस तेजी लेश्या को शान्त किया । गोशालक को सुरक्षित देखकर तापस ने महावीर की शक्ति का रहस्य समझा और विनम्र शब्दों में बोला"भगवन् ! मैं इसे आपका शिष्य नहीं जानता था, क्षमा कीजिये ।"3 कुछ समय पश्चात् भगवान् ने पुनः सिद्धार्थपुर' की ओर प्रयास किया। तिल के खेत के पास आते ही गोशालक को पुरानी बात याद आ गई। उसने महावीर से कहा--"भगवन् ! आपकी वह भविष्यवाणी कहाँ गई ?" प्रभ बोले--- "बात ठीक है। वह बाजू में लगा हुआ पौधा ही पहले वाला तिल का पौधा है, जिसको तुने उखाड़ फेंका था।" गोशालक को इस पर विश्वास नहीं हुप्रा । वह तिल के पौधे के पास गया और फली को तोड़ कर देखा तो महावीर के कथनानुसार सात ही तिल निकले। इस घटना से वह नियतिवाद का पक्का समर्थक बन गया। उस दिन से उसकी दृढ़ मान्यता हो गई कि सभी जीव मरकर पुनः अपनी ही योनि में उत्पन्न होते हैं। वहां से गोशालक ने भगवान का साथ छोड़ दिया और वह अपना मत चलाने की बात सोचने लगा। सिद्धार्थपुर से भगवान् वैशाली पधारे। नगर के बाहर भगवान को ध्यान-मद्रा में देख कर अबोध बालकों ने उन्हें पिशाच समझा और अनेक प्रकार की यातनाएं दीं। सहसा उस मार्ग से राजा सिद्धार्थ के स्नेही मित्र शंख भूपति १ तेण असद्दहतेण प्रवक्कमित्ता सलेठ्ठो उप्पाड़ितो एगते य एडिप्रो...."बुढें । "... [प्राव. चू., पृ. २६७] २ भगवती में कूर्मग्राम के स्थान पर कुडग्राम लिखा है। ३ भ. श. श. १५, उ. १, स. ५४३ समिति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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