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जैन धर्म का मौलिक इतिहास [साधना का नवम वर्ष उनको पकड़ कर अधिकारी राज-सभा में 'जितशत्रु' के पास ले गये। वहां 'अस्थिक' गाँव का नैमित्तिक उत्पल आया हुआ था। उसने जब भगवान् को देखा तो उठ कर त्रिविध वंदन किया और बोला--"यह कोई गुप्तचर नहीं है, यह तो सिद्धार्थ-पुत्र, धर्म-चक्रवर्ती महावीर हैं।" परिचय पाकर राजा जितशत्रु ने भगवान् की वंदना की और उन्हें सम्मानपूर्वक विदा किया।'
लोहार्गला से प्रभु ने 'पुरिमताल' की ओर प्रयाण किया। नगर के बाहर 'शकटमुख' उद्यान में वे ध्यानावस्थित रहे। 'पुरिमताल' से फिर 'उन्नाग' और 'गोभूमि' को पावन करते हुए प्रभु राजगृह पधारे । वहाँ चातुर्मासिक तपस्या ग्रहण कर विविध आसनों और अभिग्रहों के साथ प्रभु ध्यानावस्थित रहे । इस प्रकार पाठवाँ वर्षाकाल पूर्ण कर प्रभु ने नगर के बाहर पारणा ग्रहण किया।
साधना का नवम वर्ष भगवान् महावीर ने सोचा कि प्रार्य देश में जन-मन पर अंकित सुसंस्कारों के कारण कर्म की अत्यधिक निर्जरा नहीं होती, इसलिये इस सम्बन्ध में कुछ उपाय करना चाहिये। जैसे किसी कुटुम्बी के खेत में शालि उत्पन्न होने पर पथिकों से कहा जाता है कि कटाई करो, इच्छित भोजन मिलेगा, फिर चले जाना । इस बात से प्रभावित होकर, जैसे लोग उसका धान काट देते हैं वैसे ही उन्हें भी बहुत कर्मों को निर्जरा करनी है। इस कार्य में सफलता अनार्य देश में ही मिल सकती है। इस विचार से भगवान् फिर अनार्य भूमि की ओर पधारे और पहले की तरह इस बार भी लाढ़ और शुभ्र-भूमि के अनार्य खण्ड में जाकर उन्होंने विविध कष्टों को सहन किया, क्योंकि वहाँ के लोग अनुकम्पारहित व निर्दयी थे । योग्य स्थान नहीं मिलने से वहाँ वृक्षों के नीचे, खण्डहरों में तथा घूमते-घामते वर्षाकाल पूर्ण किया। छ मास तक अनार्यदेश में विचरण करने के फलस्वरूप विभिन्न प्रकार के कष्ट सहते हुए भी भगवान् को इस बात का हर्ष था कि उनके कर्म कट रहे हैं। इस तरह अनार्य देश का प्रथम चातुर्मास समाप्त कर प्रभु फिर आर्य देश में पधारे ।
साधना का देशम वर्ष अनार्य प्रदेश से विहार कर भगवान् 'सिद्धार्थपुर' से 'कूर्मग्राम' की ओर पधार रहे थे, तब गोशालक भी साथ ही था। उसने मार्ग में सात पुष्प वाले एक तिल के पौधे को देख कर प्रभु से जिज्ञासा की-"भगवन् ! यह पौधा फलयुक्त होगा क्या ?" उत्तर देते हुए भगवान् ने कहा--"हां पौधा फलेगा और सातों फूलों के जीव इसकी एक ही फली में उत्पन्न होंगे।" १ भाव०पू०, पृ. २१४ । २ माव. पू., पृ. २९६-"दइव नियोगेण लेहट्ठो प्रासी वसही वि न लम्मति ।"
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