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________________ साधना का सप्तम वर्ष ] भगवान् महावीर वान् ध्यान में अडोल रहे और मन में भी विचलित नहीं हुए। समभावपूर्वक उस कठोर उपसर्ग को सहन करते हुए भगवान् को विशिष्टावधि ज्ञान प्राप्त हुआ । वे सम्पूर्ण लोक को देखने लगे ।' भगवान् की सहिष्णुता व क्षमता देख कर 'कटपूतना' हार गई, थक गई और शान्त होकर कृत अपराध के लिये प्रभु से क्षमायाचना करती हुई, वन्दन कर चली गई । 'शालिशीर्ष' से विहार कर भगवान् 'भद्रिका " नगरी पधारे । वहाँ चातुर्मासिक तप से प्रासन तथा ध्यान की साधना करते हुए उन्होंने छठा वर्षाकाल बिताया। खै मास तक परिभ्रमण कर अनेक कष्टों को भोगता हुना आखिर गोशालक भी पुन: वहाँ श्रा पहुंचा और भगवान् की सेवा में रहने लगा । वर्षाकाल समाप्त होने पर प्रभु ने नगर के बाहर पारण किया और मगध की प्रोर चल पड़े | 3 ५६५ साधना का सप्तम वर्ष मगध के विविध भागों में घूमते हुए प्रभु ने आठ मास बिना उपसर्ग के पूर्ण किये। फिर चातुर्मास के लिये 'प्रालंभिया' नगरी पधारे और चातुर्मासिक तप के साथ ध्यान करते हुए सातवाँ चातुर्मास वहाँ पूर्ण किया । चातुर्मास पूर्ण होने पर नगर के बाहर चातुर्मासिक तप का पारण कर 'कंडाग' सन्निवेश और 'भद्दणा' नाम के सन्निवेश पधारे मोर क्रमश: वासुदेव तथा बलदेव के मंदिर में ठहरे । गोशालक ने देवमूर्ति का तिरस्कार किया जिससे वह लोगों द्वारा पीटा गया । 'भट्टणा' से निकल कर भगवान् 'बहुसाल' गाँव गये और गांव के बाहर सालवन उद्यान में ध्यानस्थ हो गये । यहाँ शालार्य नामक व्यन्तरी ने भगवान् को अनेक उपसर्ग दिये, किन्तु प्रभु के विचलित नहीं होने से अन्त में थक कर वह क्षमायाचना करती हुई अपने स्थान को चली गई । साधना का श्रष्टम वर्ष 'भद्दरणा' से विहार कर भगवान् 'लोहार्गला' पधारे। 'लोहार्गला के पड़ोसी राज्यों में उस समय संघर्ष होने से वहाँ के सभी अधिकारी श्राने वाले यात्रियों से पूर्ण सतर्क रहते थे। परिचय के बिना किसी का राजधानी में प्रवेश संभव नहीं था । भगवान् से भी परिचय पूछा गया । उत्तर नहीं मिलने पर १ वेयरणं श्रहिया संतस्स भगवतो ओही विगसिप्रो सव्वं लोगं पासिउमारद्धो । प्रा० चू०, पृ० २६३ । २ " भद्दिया" अंग देश का एक नगर था, भागलपुर से म्राठ मील दूर दक्षिण में भदरिया ग्राम है, वहीं पहले भद्दिया थी । तीर्थंकर महावीर, पृ० २०६ । ३ बाहि पारेता ततो पच्छा मगहविसए विहरति निरुवसग्गं भट्ट मासे उबद्धिए । [भाव० चू०, पृ० २६३] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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