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___ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [व्यंतरी का उपद्रव तुम्हें दण्डित करेगा।" परिवाजिकानों की बातें सुन कर उन लोगों ने प्रभु को मुक्त किया और अपनी भूल के लिए क्षमायाचना की ।' ।
वहां से मुक्त होकर प्रभ वैशाली की ओर अग्रसर हुए। कुविय सनिवेश से प्रभु ने जिस ओर चरण बढ़ाये, वहाँ दो मार्ग थे । गोशालक ने प्रभु से कहा"आपके साथ मुझे अनेक कष्ट भोगने पड़ते हैं और आप मेरा बचाव भी नहीं करते। इसलिए यह अच्छा होगा कि मैं अकेला ही विहार करू।" इस पर सिद्धार्थ बोले - "जैसी तेरी इच्छा ।" वहाँ से महावीर वैशाली के मार्ग पर बढ़े और गोशालक राजगृह की ओर चल पड़ा।
वैशाली पधार कर भगवान लोहार की 'कम्मशाला' में अनुमति लेकर ध्यानावस्थित हो गये। कर्मशाला के एक कर्मकार-लुहार ने अस्वस्थता के कारण छै मास से काम बन्द कर रखा था। भगवान के आने के दूसरे दिन से ही वह स्वस्थता का अनुभव करने लगा, अतः अौजार लेकर शुभ मुहूर्त में यंत्रालय पहुंचा । भगवान को यंत्रालय में खड़े देख कर उसने अमंगल मानते हुए उन पर प्रहार करना चाहा, किन्तु ज्योंही वह हथोड़ा लेकर आगे बढ़ा त्योंही दैवी प्रभाव से सहसा उसके हाथ स्तंभित हो गये और प्रहार बेकार हो गया।
वैशाली से विहार कर भगवान 'ग्रामक सनिवेश' पधारे और 'विभेलक' यक्ष के स्थान में ध्यानस्थ हो गये । भगवान् के तपोमय जीवन से प्रभावित होकर यक्ष भी गुरण-कीर्तन करने लगा।
व्यंतरी का उपद्रव और विशिष्टावधि लाम ..'ग्रामक सनिवेश' से विहार कर भगवान 'शालि शीर्ष' के रमणीय उद्यान में पधारे। माघ मास की कड़कड़ाती सर्दी पड़ रही थी । मनुष्य घरों में गर्म वस्त्र पहने हुए भी काँप रहे थे। परन्तु भगवान् उस समय भी खुले शरीर ध्यान में खड़े थे । वन में रहने वाली 'कटपतना' नाम की व्यन्तरी ने जब भगवान् को ध्यानस्थ देखा तो उसका पूर्वजन्म का वैर जागृत हो उठा और उसके क्रोध का पार नहीं रहा। वह परिवाजिका के रूप में बिखरी जटाओं से मेघधाराओं की तरह जल बरसाने लगी और भगवान् के कंधों पर खड़ी हो तेज हवा चलाने लगी। कड़कड़ाती सर्दी में वह बर्फ सा शीतल जल, तेज हवा के कारण तीक्ष्ण काँटों से भी अधिक कष्टदायी प्रतीत हो रहा था, फिर भी भग
१ प्राव. चू., पृ० २६२ २ सिदार्थोऽयावदत्तम्यं, रोचते यत्कुरुष्व तत् । ३ सक्केण तस्स उवरि घणो पावियो तह चेव मतो। ४ प्राव० चू०, पृ० २६२
[त्रि. श. पु. च., १०१३३५९४]
[भाव. चू., पृ. २९२]
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