SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 657
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपसर्ग] भगवान् महावीर ५६३ वहाँ के लोगों की दुष्टता असाधारण स्तर की थी। उन्होंने विविध प्रहारों से भगवान् के सुन्दर शरीर को क्षत-विक्षत कर दिया। उन्हें अनेक प्रकार के असहनीय भयंकर परीषह दिये। उन पर धूल फैकी तथा उन्हें ऊपर उछालउछाल कर गेंद की तरह पटका । अासन पर से धकेल कर नीचे गिरा दिया। हर तरह से उनके ध्यान को भंग करने का प्रयास किया। फिर भी भगवान् शरीर से ममत्व रहित होकर, बिना किसी प्रकार की इच्छा व आकांक्षा के संयम-साधना में स्थिर रह कर शान्तिपूर्वक कष्ट सहन करते रहे।"१ इस प्रकार उस अनार्य प्रदेश में समभावपूर्वक भयंकर उपसर्गों को सहन कर भगवान ने विपूल कर्मों की निर्जरा की। वहाँ से जब वे आर्य देश की ओर चरण बढ़ा रहे थे कि पूर्णकलश नाम के सीमाप्रान्त के ग्राम में उन्हें दो तस्कर मिले। वे अनार्य प्रदेश में चोरी करने जा रहे थे । सामने से भगवान् को पाते देख कर उन दोनों ने अपशकुन समझा और तीक्ष्ण शस्त्र लेकर भगवान् को मारने के लिये लपके । इस घटना का पता ज्योंही इन्द्र को चला, इन्द्र ने प्रकट होकर तस्करों को वहां से दूर हटा दिया ।। भगवान आर्य देश में विचरते हए मलय देश पधारे और उस वर्ष का वर्षावास मलय की राजधानी 'भद्दिला नगरी' में किया। प्रभु ने चातुर्मास में विविध आसनों के साथ ध्यान करते हुए चातुर्मासिक तप की आराधना की और चातुर्मास पूर्ण होने पर नगरी के बाहर तप का पारणा कर 'कदली समागम' और 'जंबू संड' की ओर प्रस्थान किया। साधना का छठा वर्ष 'कदली समागम' और 'जंबू संड' में गोशालक ने दधिकूर का पारणा किया। वहाँ भी उसका तिरस्कार हुमा । भगवान 'जंबू संड' से 'तंबाय' सन्निवेश पधारे। उस समय पाश्वापत्य स्थविर नन्दिषेण वहाँ पर विराज रहे थे । गोशालक ने भी उनसे विवाद किया । फिर वहाँ से प्रभु ने 'कविय' सन्निवेश की मोर विहार किया, जहाँ वे गुप्तचर समझ कर पकड़े गये और मौन रहने के कारण बंदी बना कर पीटे गये। वहाँ पर विजया और प्रगल्भा नाम की दो परिवाजिकाएं, जो पहले पार्श्वनाथ की शिष्यायें थीं, इस घटना का पता पाकर लोगों के बीच आयीं और भगवान् का परिचय देते हुए बोलीं-"दुरात्मन् ! नहीं जानते हो कि यह चरम तीर्थंकर महावीर हैं । इन्द्र को पता चला तो वह १ भाषा०, ६॥३॥ पृ. ९२ २ सिखत्वेण ते प्रसी तेसिं चेव उपरि ढो, तेसि सीसाणि चिन्माणि । भन्ने भएंति-सस्करण मोहिणा प्रमोइता दोषि बजेण हता। [भाव. पु. १, पृ० २६०] ३ पाव. पू., पृ० १९१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy