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________________ भगवान् श्री अजितनाथ तीर्थंकर ऋषभदेव के बहुत समय बाद द्वितीय तीर्थंकर श्री अजितनाथ हुए । प्रकृति का अटल नियम है कि जिसका जीवन जितना उच्च होगा, उसकी पूर्वजन्म की साधना भी उतनी ही ऊंची होगी । श्रजितनाथ की पूर्व जन्म की साधना भी ऐसी ही अनुकरणीय और उत्तम थी । उनके पूर्वजन्म की साधना का जो विवरण उपलब्ध होता है वह इस प्रकार है : पूर्वभव जम्बूद्वीपस्थ महाविदेह क्षेत्र में सीता नाम की महानदी के दक्षिणी तट पर अति समृद्ध एवं परम रमणीय वत्स नामक विजय है । वहां अलका तुल्य प्रति सुन्दर सुसीमा नाम की नगरी थी । विमलवाहन नामक एक महाप्रतापी राजा वहां राज्य करता था । वह बड़ा ही पराक्रमी, न्यायप्रिय धर्मपरायण, नीतिनिपुर और शासक के योग्य सभी श्रेष्ठ गुरणों से युक्त था । संसार में रहते हुए भी उनका जीवन भोगों से अलिप्त था । विशाल राज्य और भव्य भोगों को पाकर भी वे आसक्त नहीं हुए । लोग उनको वीरवर, दानवीर और दयावीर कहा करते थे । : सुखपूर्वक राज्य करते हुए प्रजावत्सल राजा विमलवाहन एक दिन ग्रात्मनिरीक्षण करने लगे कि मानव भव पाकर प्रारणी को क्या करना चाहिये । उनकी चिन्तनधारा और आगे की ओर प्रवाहित हुई । वे सोचने लगे कि संसार के अनन्तानन्त प्रारणी कराल काल की विकराल चक्की में अनादि काल से पिसते चले आ रहे हैं। चौरासी लाख जीव योनियों में जन्म-मरण के प्रसह्य व दारुरण दुःखों को भोगते हुए तड़प रहे हैं, सिसक रहे हैं और करुण क्रन्दन कर रहे हैं । इस जन्म, जरा, मरण रूपी कालचक्र का कोई प्रोर है न कोई छोर ही । भवाटवी में अनादि काल से भटकते हुए उन अनन्तानन्त प्राणियों में मैं भी सम्मिलित हूं। मैं इस भयावहा भवाटवी के चक्रव्यूह से, इस त्रिविध ताप से जाज्वल्यमान भट्टी से और जन्म-मरण के भयावह भव- पाप से कब छुटकारा पाऊंगा ? चौरासी लाख जीव योनियों में केवल एक मानव योनि ही ऐसी है जिसमें प्रारणी साधनापथ पर अग्रसर हो सभी सांसारिक दुःखों का अन्त कर भवपाश से मुक्त हो 'मत्यं शिवं सुन्दरम्' के सही स्वरूप को प्राप्त कर अनन्त प्रव्याबाघ-शाश्वत मुखधाम शिवपद को प्राप्त कर सकता है । मुझे भवपाश से विमुक्त होने का स्वर्णिम अवसर प्राप्त हुआ है । ग्रनाद्यनन्त काल तक दुस्सा दुःखपूर्ण विविध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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