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________________ पूर्वभव] भगवान् श्री अजितनाथ १४३ योनियों में भटकने के पश्चात् पूर्वोपार्जित अनन्त-अनन्त पुण्य के प्रताप से मुझे वह दुर्लभ मानव जन्म मिला है । पुण्य भू कर्मभूमि के प्रार्यक्षेत्र में किसी हीन कूल में नहीं अपितु उत्तम आर्य कुल में मेरा जन्म हुआ है। मुझे स्वस्थ, सशक्त, सुन्दर शरीर, उत्तम संहनन और उत्तम संस्थान मिला है । ऐसा सुन्दर, सुनहरा सुयोग अनन्तकाल तक भव भ्रमण करने के अनन्तर अनन्त पुण्योदय के प्रभाव से ही सभी प्रकार के बाह्य साधन प्राप्त हैं । इस अमूल्य मनुष्य जीवन का एकएक क्षण अनमोल है। फिर मैं कैसा अभागा मूढ़ हूं, जो मैंने इस चिन्तामणि तुल्य तत्काल अभीप्सित अमृतफल प्रदायी महाग्रं मानव जन्म की महत्त्वपूर्ण घड़ियों को क्षणभंगुर एवं मृगमरीचिका के समान वास्तविकता-विहीन सांसारिक सुखोपभोग में नष्ट कर दिया है। __ स्वप्न का दृश्य तभी तक दिखता है, जब तक कि आँखें बन्द हैं, आँखें खुलते ही वह दृश्य तिरोहित हो जाता है और स्वप्नद्रष्टा समझ जाता है कि वह दृश्य जंजाल था, धोखा था, अवास्तविक था, किन्तु जागृत अवस्था में दिखने वाला यह संसार का दृश्य तो स्वप्न के दृश्य से भी बहुत बड़ा धोखा है। यह दृश्य जंजाल होते हुए भी जब तक आँखें खुली रहती हैं, तब तक प्राणी को सच्चा प्रतीत होता है और आँखें बन्द हो जाने पर झूठा जंजाल, अवास्तविक, अस्तित्वविहीन अथवा असत् । जीवन भर प्राणी असत् को सत् समझता हुआ भ्रम में रहे, भुलावे मे रहे और सब कुछ समाप्त होने पर मानव जन्म रूपी चिन्तामणि रत्न लुट जाने के पश्चात् मरणोपरान्त वास्तविकता का उसे बोध हो, ऐसा भ्रामक व धोखाधड़ी से ओतप्रोत है यह सांसारिक दृश्य । सन्तकबीर ने ठीक ही कहा है-'माया महा ठगिनी मैं जानी।' इससे बढ़कर धोखा और क्या हो सकता है ? कितने भुलावे में रहा हूं मैं ? कितना बड़ा धोखा खाया है मैंने कि जो भवसागर में पार उतारने वाले महापोत तुल्य महत्त्वपूर्ण महान् निर्णायक मनुष्य जीवन को विषय-वासनाओं के एकान्तत: असत् इन्द्रजाल में व्यर्थ ही व्यतीत कर दिया। अब उन बीती अमूल्य घड़ियों का एक भी बहुमूल्य क्षरण लौट कर नहीं आ सकता । अनादि काल से अनन्तानन्त.. तीर्थेश्वर विश्व को शाश्वत सनातन सत्पथ बताते हुए कहते आ रहे हैं : जा जा वच्चई रयणी, न सा परिणियट्टई । अहम्म कुरणमारणस्स, अफला जंति राइयो । जा जा वच्चई रयणी, न सा परिणियट्टई । धम्मं च कुणमाणस्स, सफला जंति राइयो ।। जो अनन्त मूल्यवान् समय हाथ से निकल गया, उसके लिये हाथ मलमल कर पछताने पर भी कुछ हाथ आने वाला नहीं है। जो बीता सो तो बीत गया, अब आगे की सुध लेना ही बुद्धिमत्ता है। अब जो जीवन शेष रहा है, For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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