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________________ १४४. जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ पूर्वभव उससे अधिकाधिक प्राध्यात्मिक लाभ उठाना ही मेरे लिये परम हितकर होगा । महापुरुषों का कथन है कि अध्यात्म मार्ग पर प्रवृत्त अन्तर्मुखी प्रवृत्ति वाला प्रबुद्ध आत्मदर्शी प्रात्मा उत्कट भाव द्वारा एक क्षण में भी जो अक्षय श्रात्मनिधि प्रजित करता है, उस एक क्षरण में उपार्जित आत्मनिधि के समक्ष संसार की समस्त सम्पदाएं, समग्र निधियां तृरण तुल्य तुच्छ हैं । अतः अब मुझे इन सब निस्सार ऐहिक भोगोपभोग, ऐश्वर्य और वैभवादि को विषवत् त्याग कर स्व-पर कल्याणकारी साधना-पथ पर इसी क्षरण अग्रसर हो जाना चाहिये । इस प्रकार संसार से विरक्त हो सुसीमाधिपति महाराज विमलवाहन ने आत्महित साधना का सुदृढ़ संकल्प किया ही था कि उद्यानपाल ने उनके सम्मुख उपस्थित हो प्रणाम कर निवेदन किया- “प्रजावत्सल पृथ्वीपाल ! सुसीमावासियों के महान् पुण्योदय से स्वर्गोपमा सुसीमा नगरी के बहिस्थ उद्यान में महान तपस्वी प्राचार्य अरिदमन का शुभागमन हुआ है । इस समयोचित सुखद संवाद को सुनकर महाराज विमलवाहन ने ऐसा अनिर्वचनीय श्रानन्दानुभव किया- मानो जन्म-जन्मान्तरों के प्यासे को क्षीर सागर का शीतल जल मिल गया हो। उन्होंने उद्यानपाल को उसकी सात पीढ़ी तक के लिये पर्याप्त प्रीतिदान दिया। राजा विमलवाहन ने सोचा - "कैसा अचिन्त्य अद्भुत चमत्कार है शुभ भावनाओं का ? अन्तर्मानस में शुभ भावना की तरंग के उद्भूत होते ही तत्काल सन्तसमागम का अमर अमृतफल स्वत: हस्तगत हो गया । महाराज विमलवाहन परिजनों एवं पुरजनों के साथ उद्यान में पहुंचे । प्रगाढ़ श्रद्धा-भक्ति से आचार्य अरिदमन को वन्दन- नमन करने के पश्चात् आचार्य श्री के सम्मुख प्रवग्रहभूमि छोड़कर राजा विमलवाहन अपने परिजनों एवं पौरजनों के साथ देशना श्रवरणार्थं विनयपूर्वक भूमि पर बैठ गया । श्राचार्य अरिदमन का अमरता प्रदान करने वाला उपदेश सुनकर राजा विमलवाहन का प्रबल वैराग्य प्रत्युत्कट हो गया । उसने प्राचार्यदेव से विनयपूर्वक प्रश्न किया - "भगवन् ! अनन्त दारुण दुःखों से श्रोतप्रोत इस संसार में धोरातिघोर दुःखों को निरवच्छिन्न परम्परा से निरन्तर निष्पीड़ित और प्रताड़ित होते रहने पर भी साधारणतः प्राणियों को संसार से विरक्ति नहीं होती। यह एक प्राश्चर्यजनक तथ्य है । ऐसी स्थिति में प्रापको संसार से विरक्ति किस कारण एवं किस निमित्त से हुई ?" आचार्यश्री ने कहा "राजन् ! विज्ञ विचारक के लिये संसार का प्रत्येक कार्यकलाप वैराग्योत्पादक है । विचारपूर्वक देखा जाय तो सम्पूर्ण संसार वैराग्य के कारणों और निमित्तों से भरा पड़ा है। प्रत्येक प्राणी के समक्ष Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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