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________________ पूर्वभव] भगवान् श्री अजितनाथ १४५ उसके प्रत्येक दिन की दिनचर्या में पग-पग पर, प्रतिपल-प्रतिक्षण वैराग्योत्पादक प्रबल से प्रबलतर निमित्त प्रस्तुत होते रहते हैं। परन्तु मोह-ममत्व के मद से मदान्ध बना संसारी प्राणी उन निमित्तों को बाह्य दष्टि से देखकर भी अन्तर्दष्टि से न देखने के कारण देखी को अनदेखी कर देता है। सुलभबोधि प्रारणी तो संसार की स्वानुभूत अथवा परानुभूत प्रत्येक घटना को वैराग्य का निमित्त समझकर साधारण से साधारण और छोटी से छोटी नगण्य घटना के निमित्त से भी प्रबुद्ध हो संसार से तत्क्षण विरक्त हो जाता है। जहां तक मेरी विरक्ति का प्रश्न है, मैं अपनी विरक्ति का कारण तुम्हें बताता हूं। राज्य-सिंहासन पर प्रारूढ होने के कुछ समय पश्चात मैंने दिग्विजय करने का निश्चय किया और अपनी चतुरंगिणी सेना लेकर मैं विजय यात्रार्थ प्रस्थित हमा । विजय यात्रा में जाते समय मार्ग में मैंने एक स्थान पर नन्दन वनोपम एक अतीव सुरम्य उद्यान देखा । उस उद्यान में सहस्रों वृक्ष फलों और फूलों से लदे हुए थे। बगीचे के चारों ओर चार-चार कोस का वातावरण भांति-भांति के सुगन्धित पुष्पों की सुखद सुगन्ध से सुरभित हो गमगमा रहा था। देश-विदेशों से आये हुए विभिन्न जातियों, वर्णो, स्वरूपों और आकार से अतीव मनोहर पक्षिसमूह उस बगीचे के सुमधुर-सुस्वादु फलों के रसास्वादन से आकण्ठ तृप्त हो कर्णप्रिय कलरव कर रहे थे । वापी, कूप, तड़ाग एवं लतामण्डपों से आकीर्ण वह उद्यान देव-वन से स्पर्धा कर रहा था। उस उद्यान की मनोहर छटा पर मैं मुग्ध हो गया। मैंने अपने सामन्तों एवं सेनापतियों के साथ उस उद्यान में कुछ समय तक विश्राम किया और पुनः दिग्विजय के लिये प्रस्थान किया। दिग्विजय काल में मैंने अनेक देशों पर अपनी विजय-वैजयन्ती फहराई, किन्तु उस प्रकार का नयनाभिराम मनोहर उद्यान मुझे कहीं दष्टिगोचर नहीं हुआ। दिग्विजय के पश्चात् जब मैं पुन: अपनी राजधानी की ओर लौटा तो मैंने उस उद्यान को पूर्णत: विनष्ट और उजड़ा हुआ देखा। फलों और फलों से लदे उन विशाल वृक्षों के स्थान पर खड़े सूखे-काले ठूठ ऐसे भयावह प्रतीत हो रहे थे मानो प्रेतों की सेना खड़ी हो । पेड़-पौधे, लता-वल्लरी अथवा किसी प्रकार की हरियाली का वहां कोई नाम-निशान तक नहीं था। जो उपवन कुछ ही समय पहले नन्दनवन सा सुरम्य प्रतीत हो रहा था वही मत पशुपक्षियों के ढेर से श्मशान तुल्य वीभत्स, दुर्गन्धपूर्ण और चक्षु-पीड़ाकारक बन गया था । यह देखकर मेरे मन और मस्तिष्क को बड़ा गहरा आघात पहुंचा। अन्तस्तल में एक चिन्तन की धारा प्रवल वेग से उद्भत हो तरंगित हो उठी। मुझे यह सम्पूर्ण दृश्यमान जगत् क्षणभंगुर प्रतीत होने लगा और मेरे मन में विश्वास जम गया कि संमार के सभी प्राणियों की देर अथवा सबेर से एक न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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