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________________ १४६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ पूर्वभव एक दिन यही दशा होनी सुनिश्चित है, अवश्यम्भावी है । जो बच्चा प्राज जन्मा है, वह अनुक्रमशः कालान्तर में किशोर, युवा एवं जराजर्जरित वृद्ध होगा और एक दिन कराल काल का कवल बन जायगा । आज जो स्वस्थ, सुडौल व सुन्दर प्रतीत होते हैं, उनमें से कतिपय गस्पिद, गलित कुष्ठरोगी, कतिपय कारणे, कतिपय नितान्त अन्धे, लूले, लंगड़े बन अथवा राजयक्ष्मा आदि भयंकर रोगों से ग्रस्त हो नरकोपम दारुण दुःखों को भोगते हुए, सिसकते, कराहते, करुण क्रन्दन करते-करते एक दिन कालकवलित हो जाते हैं। जो आज राजा है, वही कल रंक बनकर घर-घर भीख मांगता हुआ भटकता है । जिसके जयघोषों से एक दिन गगन गूंजता था वही दूसरे दिन जन-जन द्वारा दुत्कारा जाता है । जो प्राज बृहस्पति तुल्य वाग्मी हैं, वही पक्षाघात, विक्षिप्तता आदि रोगों से ग्रस्त हो महामूढ़ बन जाता है । किस क्षरण, किसकी, कैसी दुर्गति होने वाली है, यह किसी को विदित नहीं । संसार के सभी जीव स्वयं द्वारा विनिर्मित कर्मरज्जुनों से आबद्ध हो असह्य दारुण दुःखों से ओतप्रोत चौरासी लाख जीवयोनियों में पुनः पुनः जन्म - जरा - मृत्यु की प्रति विकराल चक्की में निरन्तर पिसते हुए चौदह रज्जु प्रमाण लोक में भटक रहे हैं। किसी बाजीगर की डोर से बँधे मर्कट की तरह परवश हो अनन्त काल से नटवत् विविध वेश धारण कर नाट्यरत हैं । भवाग्नि की भीषण ज्वालाओं से धुकधुकाती हुई इस संसार रूपी भट्टी में झुलस रहे हैं, भुन रहे हैं, जल रहे हैं, भस्मीभूत हो रहे हैं । इन घोर दुःखों का कोई अन्त नहीं, एक क्ष भर के लिये भी कोई विश्राम नहीं, सुख नहीं, शान्ति की श्वास- उच्छ्वास लेने का भी अवकाश नहीं । यही चिन्तन का प्रवाह आत्मनिरीक्षण की ओर मुड़ा तो मैं काँप उठा, सिहर उठा । अनन्त काल से जन्म-मरण की चक्की में पिसते चले आ रहे, दुःख दावाग्नि में दग्ध होते या रहे अनन्त अनन्त संसारी प्राणियों में मैं भी एक संसारी प्राणी हूं । हाय ! मैं भी अनन्त क से इन अनन्त दुःखों को भोगता आ रहा हूं। यदि इस समय मैंने सम्हल कर, साधनापथ पर अग्रसर हो इन दुःखों के मूल का अन्त नहीं किया तो मैं फिर अनन्त - अनन्त काल तक इन असह्य, अनन्त दुःखों से त्रस्त होता रहूंगा, भीषरण भवाटवी में भटकता रहूंगा । मुझे उसी क्षरण संसार से विरक्ति हो गई। मुझे यह सम्पूर्ण संसार एक प्रति विशाल अग्निकुण्ड के समान दाहक प्रतीत होने लगा । विषय भोगों को विषवत् ठुकरा कर मैंने श्रमरणधर्म की दीक्षा ग्रहण कर ली । तभी से मैं शाश्वत सुखप्रदायी पंच महाव्रतों का पालन कर रहा हूं।" 1 ग्रपने " आचार्य श्री अरिदमन के प्रवचनों को सुन कर राजा विमलवाहन ने भी 'को राज्यभार सम्हला कर श्रमरणधर्म स्वीकार किया । पुत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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