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[माता-पिता]
भ० अजितनाथ तीर्थकर नाम गोत्र कर्म का उपार्जन मुनि बनने के पश्चात् विमलवाहन ने गुरु की सेवा में रह कर तपश्चरण के साथ-साथ आगमों का अध्ययन किया । सुदीर्घ काल तक पाँच समिति, तीन गुप्ति की विशुद्ध पालना करते हुए उन्होंने अनन्त काल से संचित कर्मों को निर्जरा की । अरिहन्त-भक्ति आदि बीस बोलों में से कतिपय बोलों की उत्कट आराधना कर मूनि विमलवाहन ने तीर्थंकर नाम-गोत्र कर्म का उपार्जन किया । अन्त में अनशनपूर्वक प्राय पूर्ण कर मुनि विमलवाहन विजय नामक अनुत्तर विमान में तेतीस सागर की आयु वाले देव रूप में उत्पन्न हुए। वहां उनकी देह एक हाथ की ऊंची और अति विशुद्ध दिव्य पुद्गलों से प्रकाशमान थी।
माता-पिता जम्बूद्वीपस्थ भारतवर्ष के दक्षिणी मध्य खण्ड में विनीता नाम की नगरी थी। वहां भगवान ऋषभदेव की इक्ष्वाकु-वंश-परम्परा के असंख्य राजाओं के राज्यकाल के अनन्तर उसी महान् इक्ष्वाकु वंश में जितशत्रु नामक एक महान् प्रतापी और धर्मनिष्ठ राजा हुए । उनकी सहधर्मिणी महारानी का नाम विजया था। महारानी विजया सर्वगरण सम्पन्ना, सर्वांग सुन्दरी, अनुपम रूप-लावण्य सम्पन्ना, विदुषी धर्मनिष्ठा और प्रादर्श पतिव्रता महिला थी। राजदम्पति न्यायपूर्वक प्रजा का पालन करते हुए उत्तमोत्तम ऐहिक सुखोपभोगों के साथ-साथ श्रमणोपासक धर्म का सुचारुरूपेण पालन करते थे । उनके राज्य में प्रजा सर्वतः सुखी, सम्पन्न और धर्मपरायणा थी। महाराजा जितशत्रु के राज्य में प्रभावअभियोगों के लिये कहीं कोई अवकाश नहीं था।
च्यवन और गर्भ में प्रागमन
भगवान् ऋषभदेव के निर्वाण से लगभग ७१ लाख पूर्व कम पचास लाख करोड़ सागर पश्चात विमल वाहन का जीव, विजय नामक अन्तर विमान के देव की तेतीस सागरोपम प्राय पूर्ण होने पर वैशाख शुक्ला त्रयोदशी (१३) को रात्रि में रोहिणी नक्षत्र के साथ चन्द्र का योग होने पर विजय विमान से मति, श्रति और अवधि इन तीन ज्ञान से यक्त च्यवन कर चित्रा नक्षत्र में ही विनीता (अयोध्या) नगरी के.महाराजा जितशत्र की महारानी विजया देवी के गर्भ में उत्पन्न हुआ।
उसी रात्रि के अन्तिम प्रहर में महारानी विजया देवी ने प्रदं सुप्त तथा अद्ध जागृत अवस्था में चौदह महा स्वप्न देखे । शुभ स्वप्नों को देखते ही महारानी विजया जागृत हो हर्षातिरेक से परम प्रमुदित हई। उसने तत्काल मन्थर गति से महाराज जितशत्रु के शयनकक्ष में पहुंच कर विनयपूर्वक उन्हें चौदह
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