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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[ गर्भ में आगमन ]
स्वप्नों का विवरण सुनाया । स्वप्नों का विवरण सुन महाराज जितशत्रु ने हर्षित हो कहा -- महादेवि ! स्वप्न महाकल्याणकारी है। हमें महान् प्रतापी, जगत्पूज्य पुत्ररत्न की प्राप्ति होगी । हर्षोत्फुल्ला महारानी विजया ने शेष रात्रि जागृत रह कर धर्माराधन में व्यतीत की ।
दूसरे चक्रवर्ती का गर्भ में श्रागमन
उसी रात्रि में महाराज जितशत्रु के छोटे भाई युवराज सुमित्र विजय की युवरानी वैजयन्ती ने भी चौदह महास्वप्न देखे, जिनकी प्रभा महारानी विजया के स्वप्नों से कुछ मन्द थी ।
प्रातःकाल महाराज जितशत्रु ने कुशल स्वप्न पाठकों को ससम्मान ग्रामन्त्रित कर उन्हें महारानी और युवराज्ञी द्वारा देखे गये चौदह महास्वप्नों का फल पूछा । स्वप्न - पाठकों ने समीचीनतया चिन्तन-मनन के पश्चात् कहा"महारानी विजया देवी की कुक्षि से इस अवसर्पिणी काल के द्वितीय तीर्थंकर महाप्रभु का पुत्र रूप में जन्म होगा और युवराज्ञी वैजयन्ती देवी द्वितीय चक्रवर्ती को जन्म देंगी।"
स्वप्नों का फल सुन कर महाराज जितशत्रु सम्पूर्ण इक्ष्वाकुवंशी परिवार. श्रमात्यवृन्द और वहां उपस्थित परिजन आनन्द विभोर हो उठे । वन्दीजनों ने विरुदावली के रूप में कहा - "धन्य है महाप्रतापी इक्ष्वाकु वंश, जिसमें तिरेसठ शलाका पुरुषों में से दो शलाका पुरुष तो युगादि में ही हो चुके हैं और दो और शलाका पुरुष इस यशस्वी वंश की दो महामहिमामयी कुलवधुओं की रत्नकुक्षि में उत्पन्न हो चुके हैं ।
गर्भस्थ लोकपूज्य प्रभु के प्रभाव से माता महारानी विजया देवी के पूर्व ही से अनुपम प्रताप तेज और कान्ति में उत्तरोत्तर अभिवृद्धि होने लगी । पतिपरायणा महारानी धर्माराधन में निरत रहती हुई गर्भ का पालन करने लगी ।
जन्म
गर्भकाल पूर्ण होने पर माघ शुक्ला अष्टमी ( ८ ) की महा पुनीता रात्रि में चन्द्रमा का रोहिणी नक्षत्र के साथ योग होने पर माता विजया देवी ने सुखपूर्वक त्रिलोकपूज्य पुत्ररत्न को जन्म दिया । प्रभु का जन्म होते ही त्रैलोक्य दिव्य प्रकाश से जगमगा उठा । सम्पूर्ण लोक में हर्ष की लहर दौड़ गई । प्रतिपल, प्रति समय घोर दुःखों का अनुभव करने वाले नरक के जीवों ने भी उस समय कुछ क्षणों के लिये सुख का अनुभव किया। छप्पन दिवकुमारिका देवियों,
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