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[जन्म]
भ० प्रजितनाथ
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देवराज शक्र, चौसठ इन्द्राणियों, देवों तथा देवांगनाओं ने विनीता नगरी में प्रा कर हर्षोल्लास के साथ राजभवन में जन्म महोत्सव मनाने के अनन्तर प्रभु को मेरु शिखर पर ले जा कर वहां उपस्थित ६३ इन्द्रों के साथ बड़े ठाट-बाट से देव-देवेन्द्रों के परम्परागत विधि-विधानों के अनुसार उनका जन्माभिषेक किया।
प्रभु के जन्म के कुछ समय पश्चात् उसी रात्रि में युवराज सुमित्र की यवरानी वैजयन्ती ने भी द्वितीय चक्रवर्ती पुत्र रत्न को जन्म दिया। प्रथम तो पुत्र जन्म को तदनन्तर थोड़ी ही देर पश्चात् भ्रातृज के जन्म को सुखद बधाई पा कर महाराज जितशत्रु प्रानन्दविभोर हो गये। उन्होंने तत्काल दोनों बधाइयां देने वालों को उनकी अनेक पीढ़ियों के लिए पर्याप्त धन-सम्पत्ति प्रदान कर उन्हें बड़े-बड़े वैभवशालियों की श्रेणी में ला दासत्व से मुक्त कर दिया । अनेकों को प्रीतिदान और अनेकों को पारितोषिक दिये गये । विविध वाद्यों की एक तान पर उठी ध्वनियों एवं किन्नरकण्ठिनी सुहागिनों के कण्ठों से निसत मंगल गीतों की प्रति मधुर कर्णप्रिय राग-रागनियों से विनीता नगरी गन्धर्वराज की राजधानी सी प्रतीत हो रही थी। राजप्रासादों, सामन्तों, अमात्यों के भलीभांति सजाये गये प्रति विशाल सुन्दर भवनों, नगरष्ठि, श्रेष्ठिवरों, श्रीमन्तों के स्फटिकाभ सुन्दर आवासों, राजपथों, वीथियों प्रादि में स्थान-स्थान पर प्रायोजित उत्सवों की धूम से राजपरिवार और समस्त प्रजाजन रागरंग और उत्सवों की धूम से झूम उठे। रागरंग और उत्सवों की चहल-पहल के कारण दिन घड़ियों के समान और घड़ियां पलों के समान प्रतीत हो रही थीं।
नामकरण जन्म-महोत्सव मनाने के पश्चात् महाराज जितशत्रु ने बन्धु-बान्धवों, अमात्यों, सामन्तों, श्रेष्ठियों एवं मित्रों को आमन्त्रित कर सरसस्वादिष्ट उत्तमोत्तम भोज्य पक्वानों एवं पेय आदि से सब का सम्मान-सत्कार करते हुए कहा--जब से यह वत्स अपनी माता के गर्भ में पाया, तब से मुझे कोई जीत न सका, मैं प्रत्येक क्षेत्र में अजित ही रहा, अतः इस बालक का नाम प्रजित रखा जाय ।' उपस्थित सभी महानुभावों ने हर्षोल्लास पूर्वक अपनी सहमति प्रकट की और प्रभु का नाम अजित रखा गया।
आवश्यक रिण में उल्लेख है कि गर्भाधान से पूर्व पासों की क्रीड़ा में राजा जितशत्रु ही रानी से जीतते थे पर गर्भाधान के पश्चात् जब प्रभु महारानी विजया के गर्भ में पाये तभी से महाराज जितशत्रु हारते रहे और महारानी १ भगवम्मि समुप्पण्णे ण केणई जिनो जउ ति कलिऊरण प्रम्मापितीहि प्रजिमोत्ति णामं कयं ।
-चउवन्न महापुरिस परियं, पृ० ५१
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