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________________ १५० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [नामकरण] विजया जीतती रही । गर्भस्थ प्रभु के प्रताप से गर्भकाल में महारानी-महाराजा से सदा अजित रही । इस चमत्कार को ध्यान में रखते हुए प्रभु का नाम अजित रखा गया ।' युवराज सुमित्र के पुत्र का नाम सगर रखा गया। प्रवर्तमान अवसर्पिणी काल का यह एक कैसा अति सुन्दर सुयोग था कि एक हो साथ, एक ही वंश, एक ही परिवार में एवं एक ही घर में दो सहोदरों की धर्मपत्नियों की कुक्षियों में इस अवसर्पिणी के चौवन महापुरुषों में से दो महापुरुषों का-एक त्रिलोक पूज्य धर्म तीर्थकर का और दूसरे भावी राजराजेश्वर चक्रवर्ती सम्राट का, केवल कुछ ही क्षरणों के अन्तर से एक साथ गर्भ रूप में आगमन हुआ एवं कतिपय क्षणों के अन्तर से एक साथ जन्म और साथ-साथ लालन-पालन एवं संवर्द्धन आदि हुए । उन असाधारण महान् शिशुओं की बाल-लीलाएं भी कितनी ललित, कितनी सम्मोहक, चमत्कारपूर्ण, अद्भुत और दर्शकों को आश्चर्य चकित कर देने वाली होंगी, इसकी कल्पना मात्र से ही प्रत्येक विज्ञ भावुक भक्त का हृदय-सागर अानन्द की तरंगों से तरंगित और हर्ष की हिलोरों से कल्लोलित हो झूम उठता है, गद्गद् हो उठता है। उन महापुरुषों की माताओं ने कितनी बलैयां ली होंगी, पावाल वृद्ध पारिवारिक और परिजनों ने कितना अतिशय आनन्दानुभव किया होगा, कितनी महिलाओं के मानस में मधुर मंजुल गद्गदी उठी होगी, इसका वर्णन करना सहस्रों जिह्वानों और लेखनियों के सामर्थ्य के बाहर है, केवल श्रद्धासिक्त अन्तमन से अनभूतियों द्वारा ही इस के अनिर्वचनीय आनन्द का रसास्वादन किया जा सकता है । प्रस्तु। दोनों होनहार शिशुओं ने अनेक वर्षों तक अपनी बाल-लीलाओं से मातापिता, परिचारकों, परिजनों और पौरजनों को प्रानन्द के विविध रसों का अद्भुत प्रास्वादन कराते हुए किशोर वय में पदार्पण किया । जैसा कि ऊपर बताया जा चका है, विमल वाहन के जीव ने विजय विमान से तीन ज्ञान के साथ च्यवन किया था। यह सनातन नियम है कि तीर्थकर पद की पुण्य प्रकृति का बन्ध की हुई सभी महान् प्रात्माएं अपने पूर्व भव से ही विशिष्ट तीन ज्ञान साथ ले कर माता की कुक्षि में प्राती है, अतः विशिष्ट तीन ज्ञान युक्त कुमार श्री अजित को तो किसी शिक्षक अथवा कलाचार्य से शिक्षा दिलाने अथवा कलाएं सिखाने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी। परन्तु मगर कुमार को विद्याओं एवं कलाओं में निपुण बनाने हेतु सुयोग्य शिक्षाविद कलाचार्य की नियक्ति की गई। कुशाग्र बद्धि के धनी मेधावी मगर कुमार ने बड़ी निष्ठा और विनयपूर्वक अध्ययन प्रारम्भ किया और अनुमानित १ विसेमो छूतं रमंति पुग्वं राया जिरिणगाइयो, गम्भ प्राभूते माता जिणाति सदावित्ति तेगा प्रक्वेसु प्रजितत्ति प्रजितो जातो । -प्रावश्यक चूणि पूर्व भाग, पृ० १० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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