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बसु का हिंसा-रहित यज्ञ] भगवान् श्री अरिष्टनेमि
स्वयं भागमुपाघ्राय, पुरोडाशं गृहीतवान् । अदृश्येन हृतो भागो, देवेन हरिमेधसा ।।१३।।
[महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय ३३६ ] उस महान् अश्वमेध-यज्ञ को पूर्ण करने के पश्चात् राजा वसु बहुत काल तक प्रजा का पालन करता रहा।'
'मजयंष्टव्यम्' को लेकर विवाद एक बार ऋषियों और देवताओं के बीच यज्ञों में दी जाने वाली आहूति के सम्बन्ध में विवाद उठ खड़ा हपा । देवगण ऋषियों से कहने लगे-"प्रजेन यष्टव्यम्' (अजैर्यष्टव्यम्) अर्थात् 'अज के द्वारा यज्ञ करना चाहिए' यह, ऐसा जो विधान है, इसमें पाये हए 'प्रज' शब्द का अर्थ बकरा समझना चाहिए न कि अन्य कोई पशु । निश्चित रूप से यही वास्तविक स्थिति है।"
इस पर ऋषियों ने कहा-"देवताओ! यज्ञों में बीजों द्वारा यजन करना चाहिए, ऐसी वैदिकी श्रुति है । बीजों का ही नाम अज है; अतः बकरे का वध करना हमें उचित नहीं है। जहां कहीं भी यज्ञ में पशुओं का वध हो, वह सत्पुरुषों का धर्म नहीं है । यह श्रेष्ठ सत्ययुग चल रहा है । इसमें पशु का वध कैसे किया जा सकता है ?" यथा :अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं
पुरातनम् । ऋषीणां चैव संवादं, त्रिदशानां च भारत ।।२।। अजेन यष्टव्यमिति प्राहुर्देवा द्विजोत्तमान् । स च च्छागोऽप्यजो ज्ञेयो नान्यः पशुरिति स्थितिः ।।३।।
__ऋषयः ऊचुः बीजैर्यज्ञेषु यष्टव्यमिति वै वैदिकी श्रुतिः । अजसंज्ञानि बीजानि, च्छागं नो हन्तुमर्हथ ।।४।। नैष धर्मः सतां देवा, यत्र वध्येत वै पशुः ।। इदं कृतयुगं श्रेष्ठ, कथं वध्येत वै पशुः ॥५॥
1 [महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय ३३७] जिस समय देवताओं और ऋषियों के बीच इस प्रकार का संवाद चल रहा था, उसी समय नपश्रेष्ठ वसु भी आकाशमार्ग से विचरण करते हुए उस स्थान पर पहुंच गये । उन अन्तरिक्षचारी राजा वसु को सहसा आते देख १ समाप्तयशो राजापि प्रजा पालितवान् वसुः ।...........६२ ॥
(महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय ३३७]
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