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________________ ३२६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास विसु का हिंसा-रहित यज्ञ "अंगिरस पुत्र-बृहस्पति इनके गुरु थे । न्याय, नीति एवं धर्मपूर्वक पृथ्वी का पालन करते हुए राजा वसु ने महान् अश्वमेध यज्ञ किया । उस अश्वमेध यज्ञ के बृहस्पति, होता तथा एकत, द्वित, त्रित, धनुष, रैभ्य, मेधातिथि, शालिहोत्र, कपिल, वैशम्पायन, कण्व आदि १६ महर्षि सदस्य हुए। उस महान् यज्ञ में यज्ञ के लिये सम्पूर्ण आवश्यक सामग्री एकत्रित की गई परन्तु उसमें किसी भी पशु का वध नहीं किया गया । राजा उपरिचर वसु पूर्ण अहिंसक भाव से उस यज्ञ में स्थित हुए । वे हिंसाभाव से रहित, कामनाओं से रहित, पवित्र तथा उदारभाव से अश्वमेध यज्ञ करने में प्रवृत्त हुए । वन में उत्पन्न हुए फल मूलादि पदार्थों से ही उस यज्ञ में देवताओं के भाग निश्चित किये गये थे।" "भगवान नारायण ने वसु के इस प्रकार यज्ञ से प्रसन्न हो स्वयं उस यज्ञ में प्रकट हो महाराज वसु को दर्शन दिये और अपने लिये अर्पित पुरोडाश (यज्ञभाग) को ग्रहण किया।" यथा : सम्भूताः सर्वसम्भारास्तस्मिन राजन महाक्रती । न तत्र पशुधातोऽभूत्, स राजवं स्थितोऽभवत् ॥१०॥ अहिंसः शुचिरक्षुद्रो, निराशीः कर्मसंस्तुतः । आरण्यकपदोद्भूता, भागास्तत्रोपकल्पिताः ।।११।। प्रीतस्ततोऽस्य भगवान्, देवदेवः पुरातनः । साक्षात् तं दर्शयामास, सोऽदृश्योऽन्येन केनचित् ।।१२।। तमाश्रमे न्यस्तशस्त्रं, निवसन्तं तपोनिधिम् । देवाः शक्र पुरोगा वै, राजानमुपतस्थिरे ॥३॥ इन्द्रत्वमहो राजायं, तपसेत्यनुचिन्त्य वै। तं सान्त्वेन नृपं साक्षात्, तपसः संन्यवर्तयन् ।।४।। दिविष्ठस्य भुविष्ठस्त्वं, सखाभूतो मम प्रियः । रम्यः पृथिव्यां यो देशस्तमावस नराधिप ।।७।। .."न तेऽस्त्यविदितं किंचिद, त्रिषु लोकेषु यद्भवेत् ।।८।। देवोपभोग्यं दिव्यं त्वामाकाशे स्फाटिकं महत् । माकाशगं त्वां महत्तं विमानमुपपत्स्यते ॥१३॥ त्वमेकः सर्वमत्येषु विमानवरमास्थितः । परिष्यस्नुपरिस्थो हि, देवो विग्रहवानिव ॥१४॥ ददामि ते वैजयन्ती, मालामम्लानपंकजाम् । पारयिष्यति संग्रामे, या त्वां शस्त्ररविक्षतम् ॥१५॥ यष्टि ग णवीं तस्मै, ददौ वृत्रनिषूदनः। इष्टप्रदानमुद्दिश्य, शिष्टानां प्रतिपालिनीम् ।१७।। [महाभारत, मादिपर्व, अध्याय ६३] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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