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जैन धर्म का मौलिक इतिहास [साधना का बारहवाँ वर्ष :
गये दुष्कायों का इस प्रकार का कट फल भोगना पड़ रहा है तो जान बूझ कर किसी के प्रहित की भावना से किये गये पापों का कितना तीव्रतम कट फल भोगना पड़ेगा, उसका संगम के उदाहरण से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।
वज गाँव से 'प्रालंभिया', 'श्वेताम्बिका', 'सावत्थी', 'कौशाम्बी., 'वाराणसी', 'राजगृह' और मिथिला आदि को पावन करते हुए भगवान वैशाली पधारे और नगर के बाहर समरोद्यान में बलदेव के मन्दिर में चातुर्मासिक तप अंगीकार कर व्यानस्थ हुए । इस वर्ष का वर्षाकाल वहीं पूर्ण हुआ।
जीरण सेठ की भावना
वैशाली में जिनदत्त नामक एक भावुक एवं श्रद्धालु श्रावक रहता था। प्रार्थिक स्थिति क्षीण होने से उसका घर पुराना हो गया और लोग उसको जीर्ण सेठ कहने लगे । वह सामुद्रिक शास्त्र का भी ज्ञाता था । भगवान् की पद-रेखाओं के अनुसंधान में वह उस उद्यान में गया और प्रभु को ध्यानस्थ देख कर परम प्रसन्न हुआ।
प्रीतिवश वह प्रतिदिन भगवान को नमस्कार करने आता और आहारादि के लिए भावना करता। इस तरह निरन्तर चार मास तक चातक की तरह चाह करने पर भी उसको भव्य भावना पूर्ण नहीं हो सको।
चातुर्मास पूर्ण होने पर भगवान् भिक्षा के लिए निकले और अपने सकल्प के अनुसार गवेषणा करते हुए 'अभिनव' श्रेष्ठी के द्वार पर खड़े रहे। यह नया धनी था, इसका मूल नाम पूर्ण था । प्रभु को देख कर सेठ ने लापरवाही से दासी को आदेश दिया और चम्मच भर कुलत्थ बहराये । भगवान् ने उसी से चार मास की तपस्या का पारणा किया। पंच-दिव्य वृष्टि के साथ देव-दुन्दुभि बजी। उधर जीणं सेठ भगवान के पधारने की प्रतिक्षा में उत्कट भावना के साथ प्रभु को पारणा कराने की प्रतीक्षा में खड़ा रहा, वह भावना की अत्यन्त उच्चतम स्थिति पर पहुँच चुका था। इसी समय देव दुन्दुभि का दिव्य घोष उसके कर्णरन्ध्रों में पड़ा और इस प्रकार उसकी प्रतीक्षा केवल प्रतीक्षा ही बनी रही। इस उत्कट-उज्ज्वल भावना से जीर्ण सेठ ने बारहवें स्वर्ग का बन्ध किया। कहा जाता है कि यदि दो घड़ी देव-दुन्दुभि वह नहीं सुन पाता तो भावना के बल पर केवलज्ञान प्राप्त कर लेता ।
साधना का बारहवाँ वर्ष : चमरेन्द्र द्वारा शरण-ग्रहण वर्षाकाल पूर्ण कर भगवान् वहाँ से 'सुसुमार' पधारे। यहाँ 'भूतानन्द' ने पाकर प्रभु से कुशल पूछा और सूचित किया--"कुछ समय में आपको केवल
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