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उपसर्ग] भगवान् महावीर
६०३ ___ इतो य-सोहम्मे कप्पे सव्वे देवा तद्दिवसं उविग्गमणा अच्छंति, संगमतो य सोहम्मं गतो, तत्थ सवको तं दठूण परम्महो ठितो भणइ-देवे भो । सुणह, एस दुरप्पा, न एएण ममवि चित्तरक्खा कया, नवि अन्नेसि देवारणं, जतो तित्थगरो प्रासातितो, न एएण अम्हं कज्जं, असंभासो, निव्विसतो उ की रउ । ततो निच्छूढ़ो सह देवीहिं, सेसा देवा इंदेण वारिया।।
देवो चुतो पहिड्ढी, सो मंदरचूलियाए सिहरंमि । परिवारितो सुरबहूहि, तस्स य अयरोवमं सेसं ॥५१३॥
स संगमकनामा महद्धिको देवः स्वर्गात् च्युतः-भ्रष्टः सन् परिवारितः सुरवधूभिर्गृहीताभिर्मन्दर चूलिकायाः शिखरे-उपरितनविभागे यानकेन विमानेनागत्य स्थितः. तस्य एकमतरोपमं आयुषः शेषम् ।'
अर्थात्-छह मास तक निरन्तर भ० महावीर को घोरतर उपसर्ग देने 'के पश्चात् भी संगम देव ने देखा कि प्रभु किसी भी दशा में, किसी भी उपाय द्वारा ध्यान से विचलित नहीं किये जा सकते तो भ० महावीर से व्रजग्राम में क्षमा मांग कर और उन्हें वन्दन कर वह सौधर्म देवलोक में लौट गया। सौधर्मकल्प में सभी देव उस दिन उद्विग्नावस्था में बैठे थे। संगम देव को देखते ही देवराज शक्र ने उसकी ओर से अपना मुख मोड़ लिया और देवों को सम्बोधित करते हुए कहा-हे देवो । सुनो, यह संगम देव बड़ा दुरात्मा-दुष्ट है । इसने तीर्थकर प्रभु की प्रासातना कर मेरे मन को भी गहरी चोट पहुंचाई है और अन्य सब देवों के चित्त को भी। अब यह अपने काम का नहीं है। वस्तुतः यह संगम संभाषण करने योग्य भी नहीं है । अतः देवलोक से इसे निष्कासित किया जाय। उसे तत्काल उसकी देवियों के साथ सौधर्मकल्प से जीवन भर के लिये निष्का-सित कर दिया गया। उसके पाभियोगिक शेष देवों को शक ने उसके साथ जाने से रोक कर सौधर्मकल्प में ही रखा। सौधर्मकल्प से भ्रष्ट हो वह संगम अपनी देवियों के साथ एक विमान में बैठ मन्दरगिरि के शिखर पर पाया और वहां रहने लगा । उस समय उसकी एक सागर आयु शेष थी।
निखिल विश्वकबन्धु भ० भहावीर को निरन्तर घोर उपसर्ग दे कर संगम देव ने प्रगाढ़ दुष्कर्मों का बन्ध किया। उन दुष्कर्मों का प्रति कटु फल भवान्तर में ही तो उसे मिलेगा ही परन्तु अपने वर्तमान के देवभव में भी वह शक्र द्वारा सौधर्म देवलोक से निष्कासित कर दिया गया। दिव्य सुखों से प्रोतप्रोत सौधर्म स्वर्ग से मक्खी की तरह फेंका जाकर मर्त्यलोक के मन्दरगिरि पर रहने के लिये बाध्य कर दिया गया।
इन्द्र के सामानिक देव को भी, उसके द्वारा केवल परीक्षा के लिये किये .१ मावश्यक मलय वृत्ति, पूर्वभाग, पत्र २६३
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