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________________ ६०२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [संगम देव के भी फाँसी का फंदा टूटता ही रहा तो दर्शक एवं अधिकारी चकित हो गये। अधिकारी पुरुषों ने प्रभु को महापुरुष समझ कर मुक्त कर दिया ।' __यहाँ से भगवान् सिद्धार्थपुर पधारे। वहाँ भी संगम देव ने महावीर पर चोरी का आरोप लगा कर उन्हें पकड़वाया, किन्तु कौशिक नाम के एक अश्वव्यापारी ने पहचान कर भगवान को मुक्त करवा दिया । भगवान् वहाँ से व्रजगाँव पधारे, वहाँ पर उस दिन कोई महोत्सव था। अतः सब घरों में खीर पकाई गई थी। भगवान् भिक्षा के लिए पधारे तो संगम ने सर्वत्र 'अनेषणा' कर दी । भगवान् इसे संगमकृत उपसर्ग समझ कर लौट आये और ग्राम के बाहर ध्यानावस्थित हो गये। इस प्रकार लगातार छः मास तक अगणित कष्ट देने पर भी जब संगम ने देखा कि महावीर अपनी साधना से विचलित नहीं हए बल्कि वे पूर्ववत ही विशुद्ध भाव से जीवमात्र का हित सोच रहे हैं, तो परीक्षा करने का उसका धैर्य टूट गया, वह हताश हो गया। पराजित होकर वह भगवान के पास आया और बोला-"भगवन् ! देवेन्द्र ने आपके विषय में जो प्रशंसा की है, वह सत्य है। प्रभो ! मेरे अपराध क्षमा करो। सचमुच आपकी प्रतिज्ञा सच्ची है और आप उसके पारगामी हैं। अब आप भिक्षा के लिए जायें, किसी प्रकार का उपसर्ग नहीं होगा।" संगम की बात सुन कर महादीर बोले- "संगम ! मैं इच्छा से ही तप या भिक्षा--ग्रहण करता हूं। मुझे किसी के आश्वासन की अपेक्षा नहीं है ।" दूसरे दिन छह माम की तपस्या पूर्ण कर भगवान् उसी गाँव में भिक्षार्थ पधारे और 'वस्सपालक' बुढ़िया के यहाँ परमान्न से पारणा किया । दान की महिमा से वहाँ पर पंच-दिव्य प्रकट हुए। यह भगवान् की दीर्घकालीन उपसर्ग सहित तपस्या थी। संगम देव के सम्बन्ध में आवश्यक नियुक्ति, मलयवृत्ति और आवश्यक चूर्षिण में निम्नलिखित उल्लेख किये हैं : "छम्मासे प्रणबद्ध, देवो कासी य सो उ उवसग्गं । दठण वयग्गामे वंदिय वीरं पडिनियत्तो ॥५१२।। एवं सोऽभविकः संगमक नामा देवः षण्मासान् अनुबद्ध-सन्ततं उपसर्गमकार्षीत् इति दृष्ट्वा च व्रजग्रामे गोकुले गो परिणाममभग्नं उपशान्तो वीरंमहावीरं वन्दित्वा प्रतिनिवृत्तः । १ प्रावश्यक चूरिण, पृ. ३१३ २ अावश्यक चू., पृ० ३१३ ATEHPATWARINAUTANAGARIRAM Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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