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चमरेन्द्र द्वारा शरण ग्रहण] भगवान् महावीर
६०५ ज्ञान और केवलदर्शन की प्राप्ति होगी। भूतानन्द की बात सुन कर प्रभु मौन ही रहे।
___ 'सुसुमारपुर' में चमरेन्द्र के उत्पात की घटना और शरण-ग्रहण का भगवती सूत्र में विस्तृत वर्णन है, जो इस प्रकार है :
भगवान् ने कहा- "जिस समय मैं छद्मस्थचर्या के ग्यारह वर्ष बिता चुका था उस समय की बात है कि छट्ट-छ? तप के निरन्तर पारणा करते हुए मैं सुसुमारपुर के वनखण्ड में पाया और अशोक वृक्ष के नीचे पृथ्वी-शिला-पट्ट पर ध्यानावस्थित हो गया। उस समय चमरचंचा में 'पूरण' बाल तपस्वी का जीव इन्द्र रूप से उत्पन्न हुआ। उसने अवधिज्ञान से अपने ऊपर शक्रेन्द्र को सिंहासन पर दिव्य भोग भोगते देखा। यह देख कर उसके मन में विचार उत्पन्न हया"यह मृत्यु को चाहने वाला लज्जारहित कौन है जो मेरे ऊपर पैर किये इस तरह दिव्य भोग भोग रहा है ?" चमरेन्द्र को सामानिक देवों ने परिचय दिया कि यह देवराज शकेन्द्र हैं, सदा से ये अपने स्थान को भोग रहे हैं । चमरेन्द्र को इससे संतोष नहीं हुआ। वह शकेन्द्र की शोभा को नष्ट करने के विचार से निकला और मेरे पास आकर बोला-"भगवन् ! मैं आपकी शरण लेकर स्वयं ही देवेन्द्र शक्र को उसकी शोभा से भ्रष्ट करना चाहता हूँ।" इसके बाद वह वैक्रिय रूप बना कर सौधर्म देवलोक में गया और हुंकार करते हुए बोलाकहाँ है ? देवराज शकेन्द्र कहाँ है ? चौरासी हजार सामानिक देव और करोड़ों अप्सरायें कहाँ हैं, उन सब को मैं अभी नष्ट करता हूँ।"
चमरेन्द्र के रोषभरे अप्रिय शब्द सुन कर देवपति शकेन्द्र को क्रोध आया और वे भृकुटि चढ़ाकर बोले - "अरे होन-पुण्य ! असुरेन्द्र ! असुरराज ! तू आज ही मर जायेगा।" ऐसा कह कर शकेन्द्र ने सिंहासन पर बैठे-बैठे ही वज्र हाथ में ग्रहण किया और चमरेन्द्र पर दे मारा । हजारों उल्काओं को छोड़ता हुमा वह वज्र चमरेन्द्र की ओर बढ़ा। उसे देख कर असुरराज चमरेन्द्र भयभीत हो गया और सिर नीचा व पद ऊपर कर के भागते हुए तेज गति से मेरे पास आया एवं अवरुद्ध कण्ठ से बोला-"भगवन् ! आप ही शरणाधार हो" और यह कहते हुए वह मेरे पाँवों के बीच गिर पड़ा।
उस समय शकेन्द्र को विचार हा कि चमर अपने बल से तो इतना साहस नहीं कर सकता, इसके पीछे कोई पीठ-बल होना चाहिए। विचार करते हुए उसने अवधिज्ञान से मुझे देखा और जान लिया कि भगवान महावीर की
१ ममं च णं चउरंगुलमसंपत्तं वज्ज पडिसाहरइ ।
[भगवती शतक, ३।२।सू. १४५३३०२]
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