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________________ १२८ जैन धर्म का नैतिक इतिहास [भ. ऋषभदेव का धर्म परिवार । वादी के अनुसार' कोशलिक ऋषभदेव के धर्मसंघ में गणधरों आदि की संख्या इस प्रकार थी : गणधर ऋषभसेन आदि चौरासी (८४) . केवली साधु बीस हजार (२०,०००) केवली साध्वियां गलीस हजार (४०,०००) मनः पर्यवज्ञानी बारह हजार छह सौ पचास (१२,६५०). अवधिज्ञानी नौ हजार (६,०००) चतुर्दश पूर्वधारी चार हजार सात सौ पचास (४,७५०) बारह हजार छह सौ पचास (१२,६५०) वैक्रिय लब्धिधारी बीस हजार छह सौ (२०,६००) अनुत्तरोपपातिक बाईस हजार नौ सौ (२२,६००) साधु चौरासी हजार (८४,०००) साध्वियां ब्राह्मी और सुन्दरी प्रमुख तीन लाख (३,००,०००) श्रावक श्रेयांस प्रमुख तीन लाख पचास हजार (३,५०,०००) श्राविकाएं सुभद्रा प्रमुख पांच लाख चौवन हजार (५,५४,०००) भगवान ऋषभदेव के इस धर्म परिवार में २० हजार साधनों और चालीस हजार साध्वियों - इस प्रकार कुल मिलाकर ६० हजार अन्तेवासी साधु-साध्वियों ने आठों कर्मों को समूल नष्ट कर अन्त में मोक्ष प्राप्त किया। भगवान् ऋषभदेव के विशाल अन्तेवासी परिवार में बहुत से अरणगार ऊर्ध्व जानु और अधोशिर किये ध्यानमग्न रहकर संयम एवं तपश्चरण से अपनी आत्मा को भावित अर्थात परिष्कृत करते हुए विचरण करते थे। भगवान ऋषभदेव की दो अन्तकृत् भूमियां हुई। एक तो युगान्तकृत् भूमि और दूसरी पर्यायान्तकृत् भूमि । युगान्तकृत भूमि की अवधि असंख्यात पुरुषयुगों तक चलती रही और पर्यायान्तकृत्-भूमि में मुमुक्षु अन्तमुहूर्त की पर्याय से आठों कर्मों का अन्त करने के कामी हुए। १ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (अमोलक ऋषिजी म०), पृ०८७-८८ २ यदि इन २२,६०० मुनियों की ७ लवमत्तम जितनी भी प्रायुष्य और होती तो ये सीधे मोक्ष में जाते । ७ लवसत्तम जितना समय ही इनके मोक्ष जाने में कम रहा था कि इनकी आयुष्य समाप्त हो गई और ये अनुत्तर विमान में देव रूप से उत्पन्न हुए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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