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________________ 'चक्रवर्ती भरत सं० ऋषभदेव के कल्यारणक कौलिक ऋषभदेव भगवान् के पांच कल्याणक उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में और छठा कल्याणक अभिजित् नक्षत्र में हुआ। उन कल्याणकों का विवरण इस प्रकार है : भ० ऋषभदेव के कल्याणक ] भ० ऋषभदेव के जीव का उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में सर्वार्थसिद्ध विमान से च्यवन हुआ और च्यवन कर उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में ही गर्भ में आया ( १ ), भ० ऋषभदेव का उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में जन्म हुआ (२), उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में प्रभु का राज्याभिषेक हुआ ( ३ ), उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में वे गृहस्थ धर्म का परित्याग कर अणगार धर्म में प्रव्रजित हुए (४), प्रभु ऋषभदेव ने उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में केवलज्ञान प्राप्त किया (५) और अभिजित् नक्षत्र में वे आठों कर्मों को नष्ट कर शुद्ध-बुद्ध मुक्त हुए (६) । प्रभु ऋषभदेव का प्रप्रतिहत विहार एक हजार वर्ष कम एक लाख पूर्व की भाव- तीर्थङ्कर पर्याय में प्रभु ऋषभदेव ने उस समय के वृहत्तर भारत के विभिन्न क्षेत्रों में विहार किया । उन्होंने बहली, अंडब इल्ला अटक प्रदेश, यवन-यूनान, स्वर्णभूमि और पनवपर्शिया जैसे दूर दूर के क्षेत्रों में भी विचरण कर भव्यों को धर्म का उपदेश दिया । उस समय देश के कोने-कोने एवं सुदूरस्थ प्रदेशों में जैनधर्म चहु मुखी प्रचार-प्रसार के कारण सार्वभौम धर्म के प्रतिष्ठित पद पर अधिष्ठित हुआ । वह भगवान् आदिनाथ ऋषभ के ही उपदेशों का प्रतिफल था । १२६ • वज्र ऋषभनाराच संहनन और समचतुरस्र संस्थान से सुगठित ५०० धनुष की ऊँचाई वाले सुघड़ - सुन्दर शरीर के धनी कौशलिक ऋषभदेव अरिहन्त बीस लाख पूर्व की अवस्था तक कुमार अवस्था में और ६३ लाख पूर्व तक महाराज पद पर रहे । इस प्रकार कुल मिला कर तियासी लाख पूर्व तक गृहवास में । पश्चात् उन्होंने अणगार धर्म की प्रव्रज्या ग्रहरण की । वे १००० वर्ष तक छद्मस्थ पर्याय में रहे । एक हजार वर्ष कम एक लाख पूर्व तक वे केवली पर्याय ( भाव तीर्थंकर पर्याय ) में रहे । सब मिला कर उन्होंने एक लाख पूर्व तक श्रमधर्म का पालन किया । Jain Education International अन्त समय में आयु- काल को निकट समझ कर १०,००० प्रन्तेवासी साधुयों के परिवार के साथ भगवान् ऋषभदेव ने अष्टापद पर्वत के शिखर पर पादपोपगमन संथारा किया। वहां, हेमन्त ऋतु के तृतीय मास और पांचवें पक्ष में माघ कृष्णा त्रयोदशी के दिन पानी रहित चौदह भक्त अर्थात् ६ दिन के उपवासों की तपस्या से युक्त, दिन के पूर्व विभाग में, अभिजित् नक्षत्र के योग में For Private & Personal Use Only i www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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