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वर्ण की स्थापना]
चक्रवर्ती भरत
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भरत ने कहा- तुम लोग प्रत्येक व्यक्ति से पूछताछ करने के पश्चात जो श्रावक हो उसे भोजन खिलाओ । ___भोजनशाला के व्यवस्थापकों ने आगन्तुकों से पूछताछ करना प्रारम्भ किया । जिन लोनों ने अपने व्रतों के सम्बन्ध में सम्यक रूप से बताया उनको योग्य समझ कर वे भरत के पास ले गये। भरत ने कांकणी रत्न से उन्हें चिह्नित किया और कहा - छः छः महीनों से ऐसा परीक्षण करते रहो।
इस प्रकार माहण उत्पन्न हुए । उनके जो पुत्र-पौत्र होते, उन्हें भी साधुनों के पास ले जाया जाता और व्रत स्वीकार करने पर कांकिणी रत्न से चिह्नित किया जाता । वे लोग प्रारम्भ, परिग्रह की प्रवृत्तियों से अलग रहकर लोगों को 'मा हन, मा हन,' ऐसी शिक्षा देते, उन्हें 'माहण' अर्थात् 'ब्राह्मण' कहा जाने लगा।'
भरत द्वारा, प्रत्येक श्रावक के - देव, गुरु, धर्म अथवा ज्ञान, दर्शन, चरित्र रूपी रत्नत्रय की प्राराधना के कारण, कांकरणी रत्न से तीन रेखाएं की जाती । समय पाकर वे ही तीन रेखाएं यज्ञोपवीत के रूप में परिणत हो
__ इस प्रकार ब्राह्मण वर्ण की उत्पत्ति हुई। जब भरत के पुत्र प्रादित्य यश सिंहासनारूढ़ हए तो उन्होंने सुवर्णमय यज्ञोपवीत धारण करवाई। यह स्वर्ण की यज्ञोपवीत धारण करने की परिपाटी प्रादित्य यश से पाठवीं पीढ़ी तक चलती रही।
इस तरह भगवान् प्रादिनाथ से लेकर भरत के राज्यकाल तक चार वों की स्थापना हुई।
मगवान् श्षमदेव का धर्म परिवार भगवान् ऋषभदेव का गृहस्थ परिवार विशाल था, उसी प्रकार उनका धर्म-परिवार भी बहुत बड़ा था । यों देखा जाय तो प्रभु ऋषभदेव की वीतरागवारणी को सुनकर कोई विरला ही ऐसा रहा होगा, जो लाभान्वित एवं उनके प्रति श्रद्धाशील नहीं हमा हो। प्रगणित नर-नारी, देव-देवी और पश तक उनके उपासक बने, भक्त बने । परन्तु यहां विशेषकर व्रतियों की दृष्टि से ही उनके धर्म परिवार का विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र
'भावश्यक चूरिण, पृ० २१३-१४ २ एवं ते उप्पना माहणा, कामं जदा पाइन्चजसो जातो तदा सोवनियारिण जन्नोवइयारिण।
एवं तेसि अट्ठ पुरिसजुगाणि ताव सोवनितागि ।। भाव० चू० प्र० भा०, पृष्ठ-२१४
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