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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[भरत द्वारा ब्राह्मरा
इस पर भरत ने प्रभु से प्रार्थना की-भगवन् ! यदि ऐसी बात है तो मेरे लिए पहले से ही बने हुए भोजन को स्वीकार किया जाय ।
जब भगवान ने उसे भी 'राजपिण्ड' कह कर अग्राह्य बताया तो भरत बड़े खिन्न एवं चिन्तित हो सोचने लगे- क्या पिता ने मुझे सर्वथा परित्यक्त कर दिया है ?
इसी बीच देवराज शक्र ने भरत की व्यथा एवं चिन्ता का निवारण करने के लिए प्रभु से पृच्छा की - भगवन् ! अवग्रह कितने प्रकार के होते हैं ?
प्रभु ने पंचविध अवग्रह में देवेन्द्र और राजा का भी अवग्रह बताया।
भरत ने इस पर प्रभु से निवेदन किया - भगवन् ! मैं अपने भारतवर्ष में श्रमण-निर्ग्रन्थों को सुखपूर्वक विचरण करने की अनुज्ञा प्रदान करता हूँ।
इसके बाद श्रमणों के लिये लाये हए आहार-पानादि के सदूपयोग के सम्बन्ध में भरत द्वारा पूछे जाने पर शक्र ने कहा- राजन् ! जो तुम से विरति गुरण में अधिक हैं, उनका इस प्रशन-पानादि से सत्कार करो।
भरत ने मन ही मन सोचा - कुल, जाति और वैभव आदि में तो कोई मुझ से अधिक नहीं है। जहां तक गणाधिक्य का प्रश्न है, इसमें मुझ से अधिक (गुण वाले) त्यागी, साधु व मुनिराज हैं, वे तो मेरे इस पिण्ड को स्वीकार ही नहीं करते। अब रहे गुणाधिक कुछ श्रावक - तो उन्हें ही यह सामग्री दे दी जाय ।
ऐसा सोच कर भरत ने वह भोजन श्रावकों को दे दिया और उन्हें बुला कर कहा - आप अपनी जीविका के लिए व्यवसाय, सेवा, कृषि प्रादि कोई कार्य न करें, मैं आप लोगों की जीविका की व्यवस्था करूगा। पापका कार्य केवल शास्त्रों का श्रवण, पठन एवं मनन व देव, गुरु की सेवा करते रहना है ।
इस प्रकार अनेकों श्रावक प्रतिदिन भरत की भोजनशाला में भोजन करते और बोलते - 'वर्द्ध ते भयं, मा हण, मा हण' - भय बढ़ रहा है, हिंसा मत करो, हिंसा मत करो।
भरत की ओर से श्रावकों के नाम इस साधारण निमन्त्रण को पाकर अन्यान्य लोग भी अधिकाधिक संख्या में भरत की भोजनशाला में प्राकर भोजन करने लगे। भोजनशाला के व्यवस्थापकों ने भोजन के लिए पाने वालों की दिन प्रतिदिन अप्रत्याशित रूप से निरन्तर बढ़ती हुई संख्या को देखकर सोचा कि यदि यही स्थिति रही तो बड़ी अव्यवस्था हो जाएगी। उन्होंने सारी स्थिति भरत के सम्मुख रखी।
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