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भरत द्वारा ब्राह्मण वर्ण की स्थापना] चक्रवर्ती भरत ऐसे कल्याणकारी कार्यों में किया जाना चाहिये, जो सभी भांति लाभप्रद एवं परम हितकर हों। इस विचार के साथ उन्हें यह भी ध्यान में पाया कि यदि बुद्धिजीवी लोगों का एक वर्ग तैयार किया जाय तो उनके द्वारा त्रिवर्ग के अन्य लोगों को भी नैतिक जीवन-निर्माण में बौद्धिक सहयोग प्राप्त होता रहेगा और समाज का नैतिक स्तर भी अधःपतन की ओर उन्मुख न होकर अभ्युन्नति की ओर अग्रसर होता रहेगा।
इस विचार को मूर्त रूप देने के लिये उन्होंने सभी शिष्ट लोगों को अपने यहां आमन्त्रित किया और उनकी परीक्षा के लिये मार्ग में हरी घास बिछवा दी।
हरी घास में भी जीव होते हैं, जिनकी हमारे चलने से विराधना होगी, इस बात का बिना विचार किये ही बहुत से लोग भरत के प्रासाद में चले गये। परन्तु कतिपय विवेकशील लोग मार्ग में हरी घास बिछी देखकर प्रासाद में नहीं गये ।
भरत द्वारा उन्हें प्रासाद के अन्दर नहीं आने का कारण पूछने पर उन्होंने कहा-"हमारे आने से वनस्पति के जीवों की विराधना होती, इसलिये हम प्रासाद के अन्दर नहीं आये।"
महाराज भरत ने उनकी दयावृत्ति की सराहना करते हुए उन्हें दूसरे मार्ग से प्रासाद में बुलाया और उन्हें सम्मानित कर 'माहरण' अर्थात् 'ब्राह्मण की संज्ञा से सम्बोधित किया।
आवश्यक चूणि (जिनदास गणी) के अनुसार भरत अपने ६८ भाइयों को प्रजित हुए जानकर अधीर हो उठे और मन में विचार करने लगे कि इतनी बड़ी अतुल सम्पदा किस काम की, जो अपने स्वजनों के भी काम न मा सके । यदि मेरे भाई चाहें तो मैं यह भोग उन्हें अर्पण कर दूं।
जब भगवान् विनीता नगरी पधारे तो भरत ने अपने दीक्षित भाइयों को भोगों के लिए निमन्त्रित किया, पर उन्होंने त्यागे हुए भोगों को ग्रहण करना स्वीकार नहीं किया । तब भरत ने उन परिग्रह-त्यागी मुनियों का माहार मादि के दान द्वारा सेवा-सत्कार करना चाहा। प्रशनादि से भरे ५०० गाडे लेकर वे उन मुनियों के पास पहुँचे एवं वन्दन नमन के पश्चात् उन्हें प्रशन-पानादि के उपभोग के लिए आमन्त्रित करने लगे।
भगवान ऋषभदेव ने फरमाया-इम प्रकार का साधुनों के लिए बना हुप्रा प्राधाकर्मी या उनके लिये लाया हुआ पाहार साधुनों के लिए ग्राह्य नहीं होता।
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