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________________ को भयभीत करना भगवान् महावीर उसने जब लोगों से यह बात सुनी तो वह अत्यन्त क्रोधित हुमा । क्रोध से जलता हुआ वह आतापना भूमि से 'हालाहला' कुम्हारिन की भांडशाला में पाया और अपने प्राजीवक संघ के साथ क्रोधावेश में बात करने लगा। उस समय श्रमण भगवान महावीर के शिष्य आनन्द अनगार भिक्षाचर्या में घूमते हुए उधर से जा रहे थे। वे सरल और विनीत थे तथा निरन्तर छ? तप किया करते थे। गोशालक ने उन्हें देखा तो बोला-"प्रानन्द ! इधर पा, जरा मेरी बात तो सुन।" आनन्द के पास आने पर गोशालक ने अपनी बात इस प्रकार कहनी आरम्भ की : "पुराने समय की बात है। कुछ व्यवसायी व्यापार के लिए अनेक प्रकार का किराना और विविध सामान गाड़ियों में भरकर यात्रा को जा रहे थे। मार्ग में ग्राम-रहित, निर्जल, दीर्घ अटवी में प्रविष्ट हुए। कुछ मार्ग पार करने पर उनका साथ में लाया हुआ पानी समाप्त हो गया। तृषा से आकुल लोग परस्पर सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए। उनके सामने बड़ी विकट समस्या थी। वे चारों ओर पानी की गवेषणा करते हुए एक घने जंगल में जा पहुँचे। वहां एक विशाल वल्मीक था। उसके चार ऊंचे-ऊंचे शिखर थे । प्यासपीड़ित लोगों ने उनमें से एक शिखर को फोड़ा। उससे उन्हें स्वच्छ, शीतल, पाचक और उत्तम जल प्राप्त हुआ। प्रसन्न हो उन्होंने पानी पिया, बैलों को पिलाया और मार्ग के लिए बर्तनों में भरकर भी साथ ले लिया। फिर लोभ से दुसरा शिखर भी फोड़ा। उसमें उनको विशाल स्वर्ण-भंडार प्राप्त हुआ । उनका लोभ बढ़ा, उन्होंने तीसरा शिखर फोड़ डाला, उसमें मरिण रत्न प्राप्त हुए । अब तो उन्हें और अधिक प्राप्त करने की इच्छा हुई और उन्होंने चौथा शिखर भी फोड़ने का विचार किया । उस समय उनमें एक अनुभवी और सर्वहितैषी वरिणकू था । वह बोला-"भाई ! हमको चौथा शिखर नहीं फोड़ना चाहिए । हमारी मावश्यकता पूरी हो गई, अब चतुर्थ शिखर का फोड़ना कदाचित दुःख और संकट का कारण बन जाय, अतः हमको इस लोभ का संवरण करना चाहिए।" ____ व्यापारियों ने उसकी बात नहीं मानकर चौथा शिखर भी फोड़ डाला। उसमें से महा भयंकर दृष्टिविष कृष्ण सर्प निकला। उसकी विषमय उग्र दष्टि पड़ते ही सारे व्यापारी सामान सहित जलकर भस्म हो गये। केवल वह एक व्यापारी बचा जो चौथा शिखर फोड़ने को मना कर रहा था। उसको सामान सहित सर्प ने घर पहुंचाया। मानन्द ! तेरे धर्माचार्य और धर्मगुरु श्रमण भगवान् महावीर ने भी इसी तरह श्रेष्ठ अवस्था प्राप्त की है। देव-मनुष्यों में उनकी प्रशंसा होती है किन्तु वे मेरे सम्बन्ध में यदि कुछ भी कहेंगे तो मैं अपने तेज से उनको व्यापा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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