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________________ ६३४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [गोशालक का प्रानन्द मुनि काली ने लघुसिंह निष्क्रीड़ित, कृष्णा ने महासिंह-निष्क्रीड़ित, सुकृष्णा ने सप्तसप्तति भिक्षु प्रतिमा, महाकृष्णा ने लघुसर्वतोभद्र, वीरकृष्णा ने महासर्वतोभद्र तप, रामकृष्णा ने भद्रोत्तर प्रतिमा और महासेनकृष्णा ने प्रायंबिल-वर्धमान तप किया। अन्त में अनशनपूर्वक समाधिभाव से काल कर सब ने सब दुःखों का अन्त कर निर्वाण प्राप्त किया।' कुछ काल तक चम्पा में ठहरकर भगवान् फिर मिथिला नगरी पधारे और वहीं पर वर्षाकाल व्यतीत किया । केवलीचर्या का पन्द्रहवां वर्ष फिर चातुर्मास समाप्त कर प्रभु ने वैशाली के पास होकर श्रावस्ती की पोर विहार किया। कौणिक के भाई हल्ल, वेहल्ल, जिनके कारण वैशाली में युद्ध हो रहा था, किसी तरह वहाँ से भगवान के पास आ पहुँचे और प्रभु चरणों में श्रमण' धर्म की दीक्षा ग्रहण कर तपश्चरण एवं आत्मोद्धार में निरत हुए। श्रावस्ती पहँचकर भगवान कोष्ठक' चैत्य में विराजमान हए । मंखलिपुत्र गोशालक भी उन दिनों श्रावस्ती में ही था। भगवान् महावीर से पृथक होने के पश्चात् वह अधिकांश समय श्रावस्ती के आसपास ही घूमता रहा । श्रावस्ती में 'हालाहला' कुम्हारिन और अयंपुल गाथापति उसके प्रमुख भक्त थे। गोशालक जब कभी आता, हालाहला की भांडशाला में ठहरता। अब वह 'प्राजीवक' मत का प्रचारक बनकर अपने को तीर्थकर बतला रहा था। जब भिक्षार्थ घूमते हुए गौतम ने नगरी में यह जनप्रवाद सुना कि श्रावस्ती में दो तीर्थकर विचर रहे हैं, एक श्रमण भगवान् महावीर और दूसरे मंखलि गोशालक, तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने भगवान् के चरणों में पहुंचकर इसकी वास्तविकता जाननी चाही और भगवान् से पूछा-"प्रभो! यह कहाँ तक ठीक है ?" गौतम के प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् महावीर ने गोशालक का प्रारम्भ से सम्पूर्ण परिचय प्रस्तुत करते हुए कहा- "गौतम ! गोशालक जिन नहीं, पर जिनप्रलापी है।" नगर में सर्वत्र गौतम और महावीर के प्रश्नोत्तर की चर्चा थी। गोशालक का प्रानन्द मुनि को भयभीत करना मंखलिपुत्र गोशालक, जो उस समय नगर के बाहर प्रातापना ले रहा था, १ अंतगढ़ सूत्र, सप्तम व अष्टमवर्ग । २ (क) तेवि कुमारा सामिस्स सीसत्ति वोसिरन्ति, देवताए हरिता । [माव. नि. जिनदास, दूसरा भाग, पृ० १७४] (ख) भरतेश्वर बाहुबली वृत्ति, पत्र १०० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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