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________________ १८६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [मध्यलोक] के नैऋत्य आदि चारों कोणों में जो दाढ़े हैं, उनमें से प्रत्येक दाढ़ पर सात-सात अन्तर्वीप हैं । इस प्रकार इन दोनों पवंतों की पाठ दाढों पर कुल मिला कर ५६ अन्तर्वीप हैं । इन दोनों पर्वतों के पहले ८ अन्तर्वीप इन पर्वतों की जगती से तीन सौ योजन दूर लवण समुद्र में हैं । प्रथम अष्टक से ४०० योजन आगे दूसरा अन्तर्वीपाष्टक, उससे आगे ५०० योजन पर तीसरा, तीसरे से ६०० योजन आगे चौथा, उससे ७०० योजन आगे पाँचवां, उससे ८०० योजन आगे छठा और छठे अष्टक से ६०० योजन आगे इन ५६ अन्तर्वीपों का सातवां अर्थात् अन्तिम अष्टक है । इन छप्पन अन्तीपों के मनष्य तथा तिर्यंच यौगलिक होते हैं और कल्पवृक्षों से अपना जीवन निर्वाह करते हैं । इन ५६ अन्तर्वीपों में सदा-सर्वदा सुखम्-दुःखम् नामक तृतीय श्रारक के उत्तराद्धं जैसी स्थिति रहती है । इन अन्तर्वीपों के मनुष्यों का देहमान ८०० धनुष और स्त्रियों का देहमान ८०० धनुष से कुछ कम होता है । इनके शरीर में ६४ पसलियां होती हैं और ये योगलिक अपने संतति युगल का ७६ दिवस तक पालन करने के पश्चात् काल कर भवनपति अथवा वाणव्यन्तर देवों में उत्पन्न होते हैं। मध्यलोक की ऊँचाई जम्बद्वीप के समतल भाग से १०० योजन ऊपर तक है । मध्यलोक के इस उपरितन भाग में अर्थात् ७६० योजन की ऊँचाई से ६०० योजन की ऊँचाई तक ज्योतिर्मण्डल अथवा ज्योतिषी लोक है। ११० योजन की ऊँचाई वाले इस ज्योतिर्लोक में चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारक ये पांच प्रकार के ज्योतिषी देवों के विमान हैं । इस ज्योतिष लोक का विस्तार लोक की चारों दिशाओं एवं चारों विदिशाओं में मेरु पर्वत के चारों ओर ११२१ योजन छोड़कर लोक के अन्तिम समुद्र स्वयम्भूरमरण समुद्र के अन्तिम कूल से ११२१ योजन पहले तक है। ६०० योजन की ऊँचाई और स्वयम्भूरमरण समुद्र के अन्तिम तट से ११२१ योजन पूर्व तक विस्तार वाले इस मध्यलोक के आकाश में ७६० योजन की ऊँचाई पर सर्वप्रथम तारों के विमान हैं । तारों से १० योजन ऊपर सूर्य के, सूर्य से ८० योजन की ऊँचाई पर चन्द्र के, चन्द्र से ४ योजन ऊपर नक्षत्रों के, नक्षत्रों से चार योजन ऊपर बुध के, बुध से ३ योजन ऊपर शुक्र के, शुक्र से ३ योजन ऊपर बृहस्पति के, उससे ३ योजन ऊपर मंगल के, मंगल से ३ योजन ऊपर शनि के विमान हैं । पाँच जाति के ज्योतिषी देवो के केवल ढाई द्वीपवर्ती विमान ही गतिशील है। ढाई द्वीप से बाहर शेष असंख्य योजन विस्तृत क्षेत्र के असंख्य ज्योतिषी विमान गतिशील नहीं, अपितु स्थिर हैं । अर्ध्व लोक समतल भूमि से ६०० योजन तक की ऊँचाई वाले मध्यलोक से ऊपर सात राजू से कुछ अधिक ऊँचाई वाले ऊर्ध्वलोक में बारह देवलोक, ६ अवेयक और ५ अनुत्तर विमान हैं । बारह देवलोकों में कल्पवासी देव रहते हैं । इन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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