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________________ १८५ [मध्यलोक] भगवान् श्री सुमतिनाथ में इन भोग भूमियों और कर्म भूमियों की संख्या जम्बूद्वीप की इन भूमियों की अपेक्षा दुगुनी-दुगुनी है । इस प्रकार ढाई द्वीप में कुल मिला कर १५ कर्म भूमियां हैं। पांच महाविदेह क्षेत्रों में काल सदा-सर्वदा अवस्थित अर्थात् एक सा रहता है। वहां सदा दुःखम्-सुखम् नामक चतुर्थ प्रारक जैसी स्थिति रहती है। पांच भरत. और पांच ऐरवत इन १० कर्म भूमियों में प्रवसपिणी काल और उत्सपिणीकाल के रूप में कालचक्र चलता रहता है । पूर्ण कालचक्र २० कोटाकोटि सागरोपम काल का होता है, जिसमें दश कोटाकोटि सागरोपम का अवसर्पिणी काल और दश कोटाकोटि सागरोपम का ही उत्सपिणी काल होता है । अवसर्पिणी काल में ४ कोटाकोटि सागरोपम का सुखमासुखम् नामक प्रथम प्रारक, ३ कोटाकोटि सागरोपम का सुखम् नामक द्वितीय पारक, २ कोटाकोटि सागरोपम का सुखम्दुःखम् नामक तीसरा आरक, ४२ हजार वर्ष कम एक सागर का दु:खम्-सूखम नामक चतुर्थ प्रारक, २१ हजार वर्ष का दुःखम् नामक पंचम प्रारक और २१ हजार वर्ष का ही दुःखमा-दुःखम् नामक छठा आरक-ये छः प्रारक होते हैं । दश कोटाकोटि सागरावधि के उत्सपिणी काल में ये ही छः प्रारक उल्टे क्रम से होते हैं। जम्बद्वीप के महाविदेह क्षेत्र में जघन्य (कम से कम) ४ तीर्थंकर, घातको खण्ड द्वीप के दोनों महाविदेह क्षेत्रों में ८ और पुष्कराद्ध द्वीप के दोनों महाविदेह क्षेत्रों में ८, इस प्रकार ढाई द्वीप में कुल मिला कर जघन्य २० विहरमान तीर्थंकर समकालीन अवश्यमेव सदा ही विद्यमान रहते हैं। प्रत्येक महाविदेह क्षेत्र में बत्तीस-बत्तीस विजय हैं। इस प्रकार ढाई द्वीप के पांचों महाविदेह क्षेत्रों के विजयों की संख्या कुल मिला कर १६० है । जिस समय इन सभी विजयों में एक-एक तीर्थंकर होते हैं उस समय केवल पंच महाविदेह क्षेत्रों में तीर्थंकरों की संख्या १६० हो जाती है । तीर्थंकरों की यह संख्या जिस समय ढाई द्वीप के पांच भरत और पांच ऐरवत क्षेत्रों में अवसपिणी काल के तृतीय प्रारक के अन्तिम भाग एवं चतुर्थ प्रारक में तथा उत्सपिणी काल के तीसरे प्रारक में तथा चतुर्थ प्रारक के प्रारम्भिक काल में इन दशों क्षेत्रों की दशों चौबीसियों के अनुक्रमशः प्रथम से ले कर चौबीसवें तीर्थंकर उत्पन्न होते हैं, उस समय ढाई द्वीप की इन १५ कर्मभूमियों में तीर्थंकरों की उत्कृष्ट संख्या समकाल में १७० हो जाती है । इस दृष्टि से ढाई द्वीप में एक ही समय में तीर्थंकरों की जघन्य संख्या २० और उत्कृष्ट संख्या १७० मानी गयी है। ढाई द्वीप में जो भोग भूमियां हैं, उनमें से देवकुरु एवं उत्तरकुरु में सदा सर्वदा सुखम्-सुखम् नामक प्रथम प्रारक जैसी, हरिवर्ष एवं रम्यक्वर्ष क्षेत्रों में सुखम् नामक द्वितीय प्रारक जैसी तथा हेमवत एवं हिरण्यवत् क्षेत्रों में सदाकाल सुखम्-दुःखम् नामक तृतीय पारक जैसी स्थिति रहती है। कर्म भूमि और अकर्म भूमि के इन मनुष्य क्षेत्रों के अतिरिक्त ५६ अन्तर्दीपों में भी मनुष्य रहते हैं । चुल्ल हिमवन्त और शिखरी पर्वत इन दोनों पर्वतों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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