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पादि प्रभु का समवसरण]
भगवान ऋषभदेव
तीर्थकर का जहां समवसरण होता है, वहां चार-चार कोस तक देवगण भूमि को संवर्त वायू से स्वच्छ और दिव्य पुष्पवर्षा से सुवासित करते हैं । समवसरण की भूमि में देवेन्द्रों द्वारा रत्नों से चित्रित तीन प्राकार बनाये जाते हैं । पहला रत्नमय प्राकार वैमानिक देवों द्वारा बनाया जाता है। इसी प्रकार सुवर्णमय दूसरा प्राकार ज्योतिष्क देवों द्वारा और तीसरा रजतमय प्राकार भवनपति देवों द्वारा निर्मित किया जाता है ।
तीनों प्राकारों पर वैमानिक, ज्योतिष्क और भवनपति देवों द्वारा अनक्रमशः रत्नादिमय तीन प्रकार के कंगूरे बनाये जाते हैं। व्यन्तरदेव ध्वजा, पताका युक्त तोरण और मनोहर धूपघड़ियों की व्यवस्था करते हैं।
प्रथम-प्राभ्यन्तर प्राकार के मध्यभाग में अशोक वृक्ष के नीचे तीर्थ कर देव के विराजमान होने के लिये चैत्यवृक्ष के नीचे रत्नमय पीठ पर देवछंदक और उस देवछंदक में उच्च सिंहासन की रचना वैमानिक देवों द्वारा की जाती है। उस देवछंदक में प्रभु सिंहासन पर विराजमान होते हैं । वह अशोक वृक्ष तीर्थ कर देव के शरीर को ऊंचाई से बारह गुना ऊंचा होता है।
समवसरण की इस प्रकार की विशिष्ट रचना सर्वत्र नहीं होती। विशिष्ट प्रसंगों को छोड़ शेष स्थानों पर सामान्य रूप से ही समवसरण होता है। नियुक्तिकार के अनुसार-जहां तीर्थ कर प्रभु का कैवल्योपलब्धि के पश्चात् सर्वप्रथम पदार्पण हो, अथवा 'जहां महद्धिक देव का आगमन हो, वहां पर संवर्त वायु, जलवृष्टि, पुष्पवृष्टि और तीन प्रकार के प्राकारों की रचना आभियौगिक देव करते हैं । जैसा कि कहा है :
जत्थ अपुव्वोसरणं, जत्थ य देवो महड्ढियो एइ।
वाउदय-पुप्फ-बद्दल-पागार तियं च अभिप्रोगा।' कतिपय आचार्यों का अभिमत है कि जहां देवेन्द्र स्वयं पाते हैं, वहाँ तीर्थकर भगवान के तीन प्राकारों वाले समवसरण की रचना की जाती है। जहां इन्द्र के सामानिक देव का आगमन होता है, वहां केवल एक ही प्राकार बनाया जाता है । यदि कभी कहीं इन्द्र का अथवा इन्द्र के सामानिक देव का भी प्रागमन नहीं हो तो वहां पर भवनपति आदि देव समवसरण की रचना कभी करते भी हैं और कभी नहीं भी करते ।।
विशिष्ट समवसरण में प्रवेश करने की भी एक निश्चित विधि अथवा व्यवस्था बताई गई है, जो इस प्रकार है :
१. मावश्यक नियुक्ति, गाथा ५४४, पत्र १०६ २. अभिधान राजेन्द्र कोश, भा० ७, पृ० ४६३
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