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जन धर्म का मौलिक इतिहास
[भरत का विवेक
एक साथ तीनों शुभ सूचनाएं पाकर महाराजा भरत क्षण भर के लिये विचार में पड़ गये कि प्रथम चक्र-रत्न की पूजा की जाय या पुत्र-जन्म का उत्सव मनाया जाय अथवा प्रभु के केवलज्ञान की महिमा का उत्सव मनाया जाय ?
क्षण भर में ही विवेक के आलोक में उन्होंने निर्णय किया--"चक्र-रत्न और पुत्र-रत्न की प्राप्ति तो अर्थ एवं काम का फल है, पर प्रभु का केवलज्ञान धर्म का फल है। प्रारम्भ की दोनों वस्तुएं नश्वर हैं, जबकि तीसरी अनश्वर । अत: चक्र-रत्न या पुत्र-रत्ल का महोत्सव मनाने के पहले मुझे प्रथम प्रभूचरणों की वन्दना और उपासना करनी चाहिये, क्योंकि वही सब कल्याणों का मूल और महालाभ का कारण है। पहले के दोनों लाभ भौतिक होने के कारण क्षणविध्वंसी हैं, जब कि भगवच्चरणवंदन आध्यात्मिक होने से आत्मा के लिये सदा श्रेयस्कर है।" यह सोचकर चक्रवर्ती भरत प्रभु के चरण-वंदन को चल पड़े।
जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र में उपरिवणित तीन शुभ सूचनामों में से केवल चक्ररत्न के प्रकट होने की बधाई आयुधशाला के रक्षक द्वारा भरत को दिये जाने का ही उल्लेख है । भगवान् ऋषभदेव को केवलज्ञान की प्राप्ति तथा भरतचक्रवर्ती के पुत्ररत्न के जन्म की बधाई दिये जाने का जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में उल्लेख नहीं है। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में भरत चक्रवर्ती के विवरण को पढ़ने से स्पष्टतः प्रकट होता है कि उसमें भरत के जीवनचरित्र का अति संक्षेप में और उनके द्वारा षट्खण्ड साधना का मुख्य रूप से विस्तारपूर्वक विवरण दिया गया है। संभव है, इसी कारण इन दो घटनाओं का उल्लेख जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में नहीं किया गया हो।
प्रादि प्रभु का समवसरण केवलज्ञान द्वारा ज्ञान की पूर्ण ज्योति पा लेने के पश्चात् भगवान् ने जहाँ प्रथम देशना दी, उस स्थान और उपदेश-श्रवणार्थ उपस्थित जन समुदाय देवदेवी, नर-नारी, तिर्यंच समुदाय को समवसरण कहते हैं।
___ 'समवसरण' पद की व्याख्या करते हुए प्राचार्यों ने कहा है-“सम्यग् एकीभावेन अवसरणमेकत्र गमनं-मेलापकः समवसरणम् ।"३ अर्थात्-अच्छी तरह एक स्थान पर मिलना अथवा साधु-साध्वी आदि संघ का एकत्र मिलना एवं व्याख्यान-सभा समवसरण कहाते हैं।
_ 'भगवती सूत्र' में क्रियावादी, प्रक्रियावादी अज्ञानवादी, विनयवादी, रूप वादियों के समुदाय को भी समवसरण कहा है। यहां पर तीर्थंकर के प्रवचनसभा रूप समवसरण का ही विचार इष्ट है।
तीर्थकर की प्रवचनसभा के लिये प्राचार्यों की मान्यता है कि भगवान्
१. (क) मावश्यक चू० पृ० १८१ (ख) तत्र धर्मफलं तीर्थ, पुत्र: स्यात् कामजं फलम् ।
अर्थानुबन्धिनोऽर्थस्य फलं चक्रं प्रभास्वरम् । महापुराण २४।६।५७३ । २. अभिधान राजेन्द्र कोश, भाग ७, पृ० ४६०
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