________________
जैन धर्म का मौलिक इतिहास [प्रादि प्रभु का समवसरण
गणधर समवसरण में पूर्व द्वार से प्रविष्ट हो, तीर्थंकर को वन्दन कर उनके दक्षिण की ओर बैठते हैं। इसी प्रकार अतिशय ज्ञानी, केवली और सामान्य साधु भी समवसरण में पूर्व द्वार से प्रविष्ट होते हैं ।
वैमानिक देवियां पूर्व द्वार से प्रविष्ट होकर सामान्य साधुनों के पीछे की ओर खड़ी रहती हैं । फिर साध्वियां पूर्व द्वार से समवसरण में आकर वैमानिक देवियों के पीछे खड़ी रहती हैं।
भवनपति आदि की देवियां, समवसरण में दक्षिण द्वार से प्राकर क्रमशः आगे भवनपति देवियां, उनके पीछे ज्योतिष्की देवियां और उनके पीछे व्यन्तर देवियां ठहरती हैं। भवनपति आदि तीनों प्रकार के देव पश्चिमी द्वार से प्रवेश करते हैं।
वैमानिक देव और नरेन्द्र आदि मानव तथा मनुष्य स्त्रियां उत्तर द्वार से समवसरण में प्राकर क्रमशः एक दूसरे के पीछे बैठते एवं बैठती हैं । यहां दूसरी परम्परा यों बतलाई गई है :
'देव्य सर्वा एव न निषीदन्ति, देवाः, मनुष्याः, मनुष्यस्त्रियश्च निषीदन्ति ।' अर्थात्-सभी देवियां नहीं बैठती. देव, मनुष्य और मनुष्य-स्त्रियां बैठती हैं ।
___ देव और मनुष्यों की परिषद् का पहले प्राकार में प्रवस्थान माना गया है।
दसरे प्राकार में पशु. पक्षी आदि तिर्यंच और तीसरे प्राकार में यानवाहन की अवस्थिति मानी गई है।
मल पागमों में समवसरण की विशिष्ट रचना, व्यवस्था और प्रवेशविधि का कोई उल्लेख नहीं है। संभव है उत्तरकालवर्ती प्राचार्यों ने भावी ममाज के लिये संघ-व्यवस्था का प्रादर्श बताने हेतु ऐसी व्यवस्था प्रस्तुत की हो।
___ श्वेताम्बर परम्परा के 'उववाइय सूत्र' में भगवान महावीर के समवसरण का वर्णन किया गया है । भगवान् महावीर के चम्पा नगरी पधारने पर वनपालक द्वारा की गई बधाई से लेकर महावीर स्वामी की शरीर सम्पदा. अान्तरिक गुण, अनेक प्रकार के साधनाशील साधुओं का वर्णन, देव-परिषद्, मनुज-परिषद् और राजा-रानी आदि के पाने-बैठने आदि की झांकी कराते हए भगवान का अशोक वृक्ष के नीचे पृथ्वी शिलापट्ट पर विराजना बताया गया है ।
'उववाइय सत्र' सत्र में यह तो उल्लेख है कि श्रमगागरण से परिवत्त, ३४ प्रतिशय और ३५ विशिष्ट वाग्गी-गुगगों मे सम्पन्न प्रभू अाकाशगत चक्र,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org