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________________ भ० दर्शन से मरुदेवी की मुक्ति ] भगवान् ऋषभदेव छत्र, चामर और स्फटिकमय सपादपीठ सिंहासन के आगे चलते हुए धर्मध्वज के साथ चौदह हजार श्रमण एवं छत्तीस हजार श्रमणियों के परिवार से युक्त पधारे । वहां पर ऋषि परिषद्, मुनि - परिषद् श्रादि विशाल परिषदों में योजनगामिनी सर्व भाषानुयायिनी अर्द्धमागधी भाषा में तीर्थंकर महावीर की देशना का तो वर्णन है किन्तु इस प्रकार देवकृत समवसरण की विभूति का अथवा देव, देवी और साधुवृन्द कौन किधर से प्राये तथा कहां-कहां कैसे बैठे, इसका वर्णन उपलब्ध नहीं होता । महिलाओं के समवसरण में प्रागमन और प्रवस्थान का जहाँ तक प्रश्न है, सुभद्रा आदि रानियां कूरिणक को आगे कर खड़ी खड़ी सेवा करती हैं, इस प्रकार का वर्णन है ।' भगवती सूत्र में मृगावती एवं देवानन्दा के लिये भी ऐसा ही पाठ है । इस पाठ की व्याख्या में पूर्वकालीन और प्रद्ययुगीन व्याख्याकार आचार्यों का मतभेद स्पष्टतः दृष्टिगोचर होता है । पर अन्तर्मन यही कहता है कि तीर्थकाल में संयम की विशुद्ध प्राराधना के लिये स्त्रीसंसर्ग अधिक नहीं बढ़े, इस भावना से श्रमणों के समवसरण में महिलानों के बैठने पर प्रतिबन्ध रखा हो, यह संभव है । वर्तमान की बदली परिस्थिति में आज ऐसा श्राराधन संभव नहीं रहा, श्रतः सर्वत्र साध्वी एवं मातृमण्डल का व्याख्यान आदि में बैठना निर्दोष एवं प्राचीर्ण माना जाता है । 1 भगवद् दर्शन से मरुदेवी की मुक्ति इधर माता मरुदेवी अपने पुत्र ऋषभदेव के दर्शन हेतु चिरकाल से तड़प रही थीं । प्रव्रज्या ग्रहण करने के पश्चात् एक हजार वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी वह अपने प्रिय पुत्र ऋषभ को एक बार भी नहीं देख पाई थीं । फलतः अपने प्रिय पुत्र की स्मृति में उसके नयनों से प्रतिपल अहर्निश अश्रुधारा प्रवाहित होती रहती थी । ܐ भरत की विपुल राज्यवृद्धि को देखकर मरुदेवी उन्हें उलाहना देते हुए प्राय: कहा करती थीं- 'वत्स भरत ! तुम अमित ऐश्वर्य का उपभोग कर रहे हो, किन्तु मेरा लाडला लाल ऋषभ भूखा-प्यासा न मालूम कहाँ-कहाँ भटक रहा होगा ? तुम लोग उसकी कोई सार सम्हाल नहीं लेते ।' भ० ऋषभदेव को केवलज्ञान प्राप्त होने का शुभ सन्देश जब भरत ने सुना तो वे तत्काल माता मरुदेवी की सेवा में पहुँचे और उन्हें प्रभु के पुरिमताल नगर १. कूरिणयं रायं पुरतो तिकट्टुठितियाओ चैव सपरिवाराम्रो प्रभिसुहावो विणणं पंजलिउडा पज्जुवासंति । उववाई, सूत्र १२६, पृ. ११६ ( अमोलक ऋषिजी म. ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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