SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ देशना और तीर्थ स्थापना केवलज्ञान की उपलब्धि का के श्रागमन का शुभ संवाद उठीं और तत्काल भरत के के बहिस्थ शटकमुख उद्यान में पधारने और उन्हें सुखद संदेश सुनाया । अपने प्राणाधिक प्रिय पुत्र सुन कर माता मरुदेवी हर्षातिरेक से पुलकित हो साथ ही गजारूढ़ हो प्रभु के दर्शनार्थ प्रस्थित हुई । समवसरण के निकट पहुँच कर माता मरुदेवी ने त्रिलोकवन्द्य भ. ऋषभदेव की देवदेवेन्द्रकृत महिमा-अर्चा देखी तो वे सोचने लगीं - 'अहो ! मैं तो समझती थी कि मेरा प्रिय पुत्र ऋषभ कष्टों में होगा, किन्तु यह तो अनिर्वचनीय प्रानन्दसागर में भूल रहा है। इस प्रकार विचार करते-करते उनके चिन्तन का प्रवाह बदल गया । वे प्रार्त्तध्यान से शुक्लध्यान में आरूढ़ हुई और कुछ ही क्षणों में ज्ञान, दर्शन, अन्तराय और मोह के सघन ग्रावरणों को दूर कर वे केवलज्ञान एवं केवलदर्शन की धारक बन गई । ' चूर्णिकार के अनुसार छत्र, भामण्डलादि अतिशय देखकर मरुदेवी को केवलज्ञान हुआ । आयु का अवसानकाल सन्निकट होने के कारण कुछ ही समय में शेष चार प्रघाति कर्मों को भी समूल नष्ट कर, गजारूढ़ स्थिति में ही वे सिद्ध, बुद्ध एवं मुक्त हो गई । कुछ प्राचार्यों की मान्यता है कि माता मरुदेवी भगवान् ऋषभदेव की धर्मदेशना को सुनती हुई ही आयु पूर्ण होने से सिद्ध हो गई । प्रवर्तमान अवसर्पिणीकाल में सिद्ध होने वाले जीवों में माता मरुदेवी का प्रथम स्थान है । तीर्थ स्थापना के पूर्व सिद्ध होने से उन्हें प्रतीर्थ सिद्ध स्त्रीलिंग सिद्ध भी कहा है । देशना और तीर्थ स्थापना केवलज्ञानी और वीतरागी बन जाने के पश्चात् ऋषभदेव पूर्ण कृतकृत्य हो चुके थे । वे चाहते तो एकान्त साधना से भी अपनी मुक्ति कर लेते, फिर भी उन्होंने देशना दी । इसके कई कारण बताये गये हैं। प्रथम तो यह कि जब तक देशना दे कर धर्मतीर्थ की स्थापना नहीं की जाती, तब तक तीर्थ कर नाम कर्म का भोग नहीं होता । दूसरा, जैसा कि प्रश्न व्याकरण सूत्र में कहा गया है, समस्त १. दिगम्बर परम्परा में इसका उल्लेख नहीं है । २. (क) करिस्कन्धाधिरूढंव, स्वामिनि मरुदेव्यथ । अन्तकृत्केवलित्वेन प्रवेदे पदमव्ययम् ॥ १।३।५३० ( ख ) भगवतो य छत्तारिच्छत पेच्छंतीए चेव केवलनाणं उप्पन्नं तं समयं च गं प्रायु ....| Jain Education International - त्रिपष्टि श. पु. वारे द्ध सिद्ध देवेहि य से पूया कता - आवश्यक बूणि ( जिनदास), पृ. १०१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy