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देशना और तीर्थ स्थापना]
भगवान ऋषभदेव
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जगजीवों की रक्षा व दया के लिये भगवान् ने प्रवचन दिया।' अतः भगवान ऋषभदेव को शास्त्र में प्रथम धर्मोपदेशक कहा गया है । वैदिक पुराणों में भी उन्हें दशविध धर्म का प्रवर्तक माना गया है ।
जिस दिन भगवान् ऋषभदेव ने प्रथम देशना दी, वह फाल्गुन कृष्णा एकादशी का दिन था। उस दिन भगवान् ने श्र त एवं चारित्र धर्म का निरूपण करते हुए रात्रिभोजन विरमण सहित अहिंसा, सत्य, प्रचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहरूप पंच महाव्रत धर्म का उपदेश दिया ।
प्रभू ने समझाया कि मानव-जीवन का लक्ष्य भोग नहीं योग है, राग नहीं विराग है, वासना नहीं साधना है, वृत्तियों का हठात् दमन नहीं अपितु ज्ञानपूर्वक शमन है।
भगवान की पीयूषवर्षिणी वाणी से निकले हुए इन त्याग-विराग पूर्ण उद्गारों को सुन कर सम्राट भरत के ऋषभसेन आदि पाँच सौ पुत्रों एवं सात सौ पौत्रों ने साधु-संघ में और ब्राह्मी आदि पांच सौ सन्नारियों ने साध्वी-संघ में दीक्षा ग्रहण की।
महाराज भरत सम्यग्दर्शनी श्रावक हुए ।
इसी प्रकार श्रेयांशकुमार आदि सहस्रों नर-पुगवों और सुभद्रा आदि सन्नारियों ने सम्यग्दर्शन और श्रावक-बत ग्रहण किया।
इस प्रकार साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका रूप यह चार प्रकार का संघ स्थापित हुआ। धर्म-तीर्थ की स्थापना करने से भगवान् सर्वप्रथम तीर्थ कर कहलाये।
ऋषभसेन ने भगवान् की वाणी सुनकर प्रव्रज्या ग्रहण की और तीन पृच्छाओं से उन्होंने चौदह पूर्व का ज्ञान प्राप्त किया।
१. प्रश्न प्र. संवर। २. ब्रह्माण्ड पुराण........ ३. (क) फग्गुणबहुले इक्कारसीई प्रह अट्ठमणभत्तण । उप्पन्नमि प्रणेते महव्वया पंच पन्नवए ।
-पावश्यक नियुक्ति गाथा-३४० (ख) सव्व जगजीव रक्खण दयट्ठयाए पावयरणं भगवया सुकहियं ।
-प्रश्न व्याकरण-२।१ ४. तत्थ उसभसेणो णाम भरहस्स रन्नो पुत्तो सो धम्म सोऊण पव्वइतो तेण तिहिं पुच्छाहिं चोद्दसपुब्वाइ गहिताई उप्पन्ने विगते धुते, तत्थ बम्भीवि पव्वइया ।
-प्रा. चूणि पृ १८२
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