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जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ देशना और तीर्थ स्थापना
भगवान् के चौरासी गरणधरों में प्रथम गणधर ऋषभसेन हुए। कहीं-कहीं पुंडरीक नाम का भी उल्लेख मिलता है परन्तु समवायांग सूत्र आदि के आधार से पुंडरीक नहीं, ऋषभसेन नाम ही संगत प्रतीत होता है ।
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ऋषभदेव के साथ प्रव्रज्या ग्रहण करने वाले जिन चार हजार व्यक्तियों के लिये पहले क्षुधा, पिपासादि कष्टों से घबरा कर तापस होने की बात कही गई थी, उन लोगों ने भी जब भगवान् की केवल ज्ञानोत्पत्ति और तीर्थ-प्रवर्तन की बात सुनी तो कच्छ, महा कच्छ को छोड़कर शेष सभी भगवान् की सेवा में आये और प्राती प्रव्रज्या ग्रहरण कर सा संघ में सम्मिलित हो गये ।'
प्राचार्य जिनसेन' के मतानुसार ऋषभदेव के ८४ गणधरों के नाम इस प्रकार हैं :
१. वृषभसेन
कुम्भ
३, दृढ़रथ
४. शत्रुदमन ५. देवशर्मा
६. धनदेव
७. नन्दन ८. सोमदत्त
१. सुरदत्त १०. वायशर्मा
११. सुबाहु १२. देवाग्नि
१३. अग्निदेव
१४. अग्निभूति १५. तेजस्वी
१६. प्रग्निमित्र
१७. हलघर
१५. महीधर
२१. वसुन्धर २२. अचल
२३. मेरु
२४. भूति
२५. सर्वसह
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२६. यज्ञ
२७. सर्वगुप्त
२५. सर्वप्रिय
२६. सर्वदेव
३०. विजय
३१. विजय गुप्त
३२. विजयमित्र
३३. विजयश्री
३४. पराख्य
३५. अपराजित
३६. वसुमित्र
३७. वसुसेन
३८. साधुसेन
३६. सत्यदेव
४०. सत्यवेद
१६. माहेन्द्र २०. वसुदेव
१. भगवप्रो सगासे पव्वता । "
२. हरिवंश पुराण, मगं १२, श्लोक ५४-७०
४१. सर्वगुप्त ४२. मित्र
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४३. सत्यवान्
४४. विनीत
४५. संवर
४६. ऋषिगुप्त
४७ : ऋषिदत्त
४८. यज्ञदेव
४६. यज्ञगुप्त
५०. यज्ञमित्र
५१. यज्ञदत्त ५२. स्वायंभुव
५३. भागदत्त
- प्रा. नि. म. प्र. २३० (ब) त्रि. १।३।६५४
५४. भागफल्गु
५५. गुप्त
५६. गुप्त फल्गु
५७. मित्र फल्गु
५८.
प्रजापति
५६. सत्य यश
६०
वरुण
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