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और शिक्षा ]
प्रथम चक्रवर्ती भरत
"अहो देवानुप्रियो ! मेरा महा अर्थ वाला, महती ऋद्धि के साथ महा मूल्यवान् महा अभिषेक करो ।”
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अभियोगिक देवों ने महाराज भरत की प्राज्ञा को शिरोधार्य कर हृष्टतुष्ट हो ईशान कोण में जा कर वैक्रिय समुद्घात किया ।
अभिनियोगिक देवों द्वारा महाराज भरत का महा अर्थपूर्ण महा ऋद्धिसम्पन्न एवं महामूल्यवान महाअभिषेक किये जाने के अनन्तर बत्तीस हजार राजाओं ने शुभ तिथि, शुभ करण, शुभ दिवस, शुभ नक्षत्र एवं शुभ मुहूर्त में, उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र के योग में, विजय नामक आठवें मुहूर्त में स्वाभाविक एवं वैक्रिय से निष्पन्न श्रेष्ठ कमलाकार कलशों में भरे स्वच्छ सुगन्धित एवं श्रेष्ठ पानी से महाराज भरत का क्रमशः अभिषेक किया । प्रत्येक राजा ने हाथ जोड़ कर जय-विजय के निर्घोष के साथ महाराज भरत का अभिवादन, अभिवर्द्धन करते हुए कहा - " त्रिखण्डाधिपते ! श्राप करोड़ पूर्व तक राज्य करो- सुख पूर्वक विचरण करो। "
३२ हजार राजाओं के पश्चात् क्रमशः सेनापति रत्न, सार्थवाह रत्न, वर्द्धिक रत्न, पुरोहित रत्न ने, तीन सौ साठ रसोइयों ने अठारह श्रेणियों प्रौर प्रश्रेणियों ने और सार्थवाह प्रमुख अन्य अनेकों ने राजाओं की ही तरह कलशों से महाराज भरत का महाभिषेक किया, जय-विजय के घोषों के साथ " करोड़ पूर्व तक राज्य करो, सुख पूर्वक विचरण करो" इस प्रकार के प्रीतिकारक वचनों से उनका वर्द्धापन, अभिवादन किया, उनकी स्तुति की ।
तदनन्तर सोलह हजार देवों ने स्वच्छ, सुन्दर सुकोमल वस्त्र से महाराज भरत के शरीर को स्वच्छ किया । उन्हें दिव्य वस्त्र, ग्राभरण अलंकार पहनाये, उनके सिर पर दिव्य मुकुट रखा । श्रेष्ठ चन्दन एवं सुगन्धित गन्ध द्रव्यों का कपोल आदि पर मर्दन किया । रंगबिरंगे सुन्दर एवं सुगन्धित पुष्पों की मालाएं पहनाई और दिव्य पुष्पस्तबकों से उन्हें विभूषित किया ।
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महान् अर्थ वाले महद्धिक, महा मूल्यवान् महाराज्याभिषेक से अभिषिक्त होने के पश्चात् महाराज भरत ने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुला कर कहा"हे देवानुप्रिय ! हाथी के होदे पर बैठ कर शीघ्रातिशीघ्र विनीता नगरी के बाह्याभ्यन्तर सभी भागों में, शृंगाटकों त्रिकों, चतुष्कों, चच्चरों एवं महापथों में डिंडिम घोष के साथ स्पष्ट और उच्च स्वरों में उद्घोषरणा करो कि सम्पूर्ण भरत क्षेत्र के छहों खण्डों के इस अवसर्पिणी काल के प्रथम चक्रवर्ती भरत के महाराज्याभिषेक के उपलक्ष्य में सभी प्रकार के करों से, शुल्कों से, सभी प्रकार के देयों से मुक्त किया जाता है । आज से बारह वर्ष पर्यन्त कोई भी राजपुरुष किसी भी प्रजाजन के घर में प्रवेश न करे, किसी से किसी भी प्रकार का दण्ड
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