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जन्म
भ० श्री सुमतिनाथ
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वैजयन्त विमान की स्थिति पूर्ण हो जाने पर श्रावण शुक्ला द्वितीया को मघा नक्षत्र में पुरुषसिंह का जीव वैजयन्त विमान से च्युत हुआ और अयोध्यापति महाराज मेघ की रानी मंगलावती के गर्भ में आया। तत्पश्चात् माता मंगलावती गर्भ-सूचक चौदह शुभ स्वप्न देखकर परम प्रसन्न हुई । गर्भकाल पूर्ण होने पर वैशाख शुक्ला अष्टमी को मध्य रात्रि के समय मघा नक्षत्र में माता ने सुखपूर्वक पुत्ररत्न को जन्म दिया।
पुण्यशाली पुरुषों का जन्म किसी खास कुल या जाति के लिए नहीं होता। वे तो विश्व के लिए उत्पन्न होते हैं अतः उनकी खुशी और प्रसन्नता भी सारे संसार को होती है। फिर जन्म की नगरी में इस जन्म से प्रानन्द और हर्ष का अतिरेक होना स्वाभाविक ही था।
महाराज मेघ ने जन्मोत्सव की खशी में दश दिनों तक नागर-जनों के आमोद-प्रमोद के लिए सारी सुविधाएं प्रदान की।
नामकरण बारहवें दिन नामकरण के लिए स्वजन एवं बान्धवों को एकत्र कर महाराज मेघ ने कहा-"बालक के गर्भ में रहते समय इसकी माता ने बड़ी-बड़ी उलझी हई समस्याओं का भी अनायास ही अपनी सन्मति से हल ढूढ निकाला, अतः इसका नाम सुमतिनाथ रखना ठीक जंचता है।"
सबके पूछने पर महाराज ने रानी की सन्मति के उदाहरणस्वरूप निम्न घटना सबके सामने रखी।
एक बार किसी सेठ की दो पत्नियों में अपने एक शिशु को लेकर कलह उत्पन्न हो गया । सेठ व्यवसाय के प्रसंग में शिशु को दोनों माताओं की देख-रेख में छोड़कर देशान्तर गया हुअा था। वहां उसकी मृत्यु हो गई। इधर शिश की विमाता माता से भी बढ़कर बच्चे का लालन-पालन करती थी। आपस में प्रेम की अधिकता से पुत्र की माता लाड़-प्यार के कार्य में सौत को दखल नहीं देती। बालक दोनों को बराबर मानता था, उसके निर्मल और निश्छल मानस में माता और विमाता का भेदभाव नहीं था।
जब सेठ के मरने की सूचना मिली तो विमाता ने पुत्र और धन दोनों पर अपना अधिकार प्रदर्शित किया। बालक की माता भला ऐसे निराधार अधिकार को चुपचाप कैसे सहन कर लेती? फलतः दोनों का विवाद निर्णय के लिए राजा मेघ के पास पहुंचा । बच्चे के रंग, रूप और प्राकार-प्रकार से महाराज किसी
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