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१६२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[ऊर्ध्व लोक] अणगारधर्म के सम्यगाराधन से ही प्राणी सब प्रकार के मूल बीजभूत पाठों कर्मों को मूलत: नष्ट कर अजरामर, अक्षय, अव्याबाध अनन्त शाश्वत सुखधाम मोक्ष को प्राप्त कर सकता है । अतः प्रत्येक शाश्वत सुखाभिलाषी मुमुक्षु को सदा सर्वदा केवली प्रणीत धर्म का पाराधन करने में अहर्निश निरत रहना चाहिये । यह धर्मभावना नाम की बारहवीं भावना है।
जो मुमुक्ष इन बारह भावनाओं में से किसी एक भावना का भी विशद्ध मन से पुनः पुनः उत्कट चिन्तन-मनन-निदिध्यासन करता है, वह सुनिश्चित रूप से शीघ्र हो शाश्वत शिवसुख का अधिकारी हो जाता है ।
प्राचार्य विनयानन्द के मुखारविन्द से धर्म के वास्तविक स्वरूप को सुन कर राजकुमार पुरुषसिंह के अन्तर्चा उन्मीलित हो गये । उसे संसार विषय कषायों की जाज्वल्यमान ज्वालाओं से संकुल प्रति विशाल भीषण भट्टी के समान महा तापसंतापकारी एवं सर्वस्व को भस्मसात् कर देने वाला प्रतीत होने लगा। राजकुमार पुरुषसिंह ने हाथ जोड़ मस्तक झुकाते हुए प्राचार्य विनयानन्द से निवेदन किया-"भगवन् ! आपने धर्म का जो सुन्दर स्वरूप बताया है, उससे मेरे घट के पट खुल गये हैं। भवसागर की भयावहता से मैं भयभीत हो रहा हूं । मुझे संसार से विरक्ति हो गई है। मैंने दृढ़ निश्चय कर लिया है कि सर्वात्मना-सर्वभावेन आपके चरणों पर अपना जीवन समर्पित कर सब दुःखों का अन्त एवं अक्षय अनन्त शाश्वत सुख प्रदान करने वाले धर्म का पाराधन. करू । मेरी आपसे यही प्रार्थना है कि आप मुझे श्रमगधर्म की दीक्षा प्रदान कर अपने चरणों की शीतल छाया में शरण दें।"
प्राचार्य विनयानन्द ने कहा--"सौम्य ! तुम्हारा संकल्प प्रत्युत्तम है। माता-पिता आदि गुरुजनों से परामर्श पूर्वक आज्ञा प्राप्त कर तुम श्रमरण धर्म में दीक्षित हो सकते हो।"
राजकुमार पुरुषसिंह ने तत्काल अपने माता-पिता के पास उपस्थित हो उनके समक्ष अपना अटल निश्चय रखा और उनसे अनुमति ले आचार्य विनयानन्द के पास श्रमण धर्म में दीक्षित हो गया। श्रमणधर्म अंगीकार करने के पश्चात् अरणगार पुरुषसिंह ने गुरुचरणों में बैठ कर बड़ी निष्ठा से आगमों का अध्ययन किया और उनमें निष्णातता प्राप्त की। मुनि पुरुषसिंह ने सुदीर्घ काल तक निरतिचार संयम का पालन करते हुए तीर्थकर नामकर्म का उपार्जन कराने वाले बीस बोलों में से कतिपय बोलों की उत्कट प्राराधना कर तीर्थंकर नामकर्म ... का उपार्जन किया और अन्त में समाधिपूर्वक प्राय पूर्ण कर वह वैजयन्त नामक अनुत्तर विमान में ३३ सागरोपम की आयुष्य वाले महद्धिक अहमिन्द्र के रूप में उत्पन्न हुआ।
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