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[ऊवं लोक] भ० श्री सुमतिनाथ
१६१ पंचेन्द्रिय से संज्ञी पंचेन्द्रिय योनियों में उत्पन्न होना अत्यन्त दुष्कर है । संजी पंचेन्द्रिय हो कर भी यदि वह अशुभ लेश्या का धारक और रोद परिणाम वाला होता है तो पुन: नरक, तिर्यंच, स्थावर आदि योनियों में दीर्घ काल तक दारुण दुःखों का भागी बनता है । इस प्रकार मानव-भव मिलना बहुत कठिन है। पुण्य के प्रताप से मानव-भव भी मिल जाय तो आर्य क्षेत्र में एवं उत्तम कुल में उत्पन्न होना बड़ा कठिन है। प्रार्य क्षेत्र एवं उत्तम कुल में उत्पन्न हो जाने के उपरान्त भो सर्वांगपूर्ण सुदृढ़ स्वस्थ शरीर एवं दीर्घायु के साथ सत्संगति का पाना दुर्लभ है । सत्संगति मिल जाने पर भी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान पोर सम्यक्चारित्र का पाना बड़ा कठिन है । सम्यक्चारित्र को अंगीकार कर लेने के उपरान्त भी जीवन भर उसका सुचारुरूपेण निर्वहन करते हुए समाधिमरण प्राप्त करना बड़ा दर्लभ है। मक्ति वस्तुतः मानव शरीर से ही प्राप्त की जा सकती है । मानव शरीर प्राप्त किये बिना रत्नत्रय का आराधन, जन्म-मरण के बीजभूत कर्मों को निर्मूल करने की क्षमता एवं निर्वाण का प्राप्त करना असम्भव है । अतः प्रत्येक मुमक्ष मानव को अहर्निश इस प्रकार का चिन्तन करना--इस प्रकार की भावना भाना चाहिये कि जन्म-जन्मान्तरों के पुण्य के प्रताप से मानव भव के साथ-साथ जो प्रार्य क्षेत्र एवं उत्तम कुल में जन्म, सत्संग तथा सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का सुयोग मिला है, इसका मुझे पूरा-पूरा लाभ उठाना चाहिये । विषय-कषायों एवं क्षरण विध्वंसी सांसारिक भोगोपभोगों को तिलांजलि दे समस्त कर्मों के निर्मूलन और अक्षय-अव्याबाध-अनन्त सुखधाम मुक्ति की प्राप्ति के लिए निरन्तर प्रयास करते रहना चाहिये ।
इस प्रकार की भावना का नाम है बोधि दुर्लभ नामक ग्यारहवीं भावना।
१२. धर्म भावना-जन्म, जरा, व्याधि, मत्य, ताड़न-तर्जन, छेदन-भेदन, इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग आदि असंख्य प्रकार के दारुण दुःखों से प्रोतप्रोत संसार-सागर में निमग्न प्राणिवर्ग के लिए एक मात्र वीतराग सर्वज्ञ प्रणीत धर्म ही त्राण, सहारा अथवा सच्चा सखा है । वस्तुत: केवली-प्रणीत धर्म अनाथों का नाथ, निर्धनों का धन, असहायों का सहायक, निर्बलों का बल, अशरण्यों का शरण्य, छोटी-बड़ी सभी प्रकार की व्याधियों की एक मात्र औषध, त्रिविध तापसंताप-पाप-कलुषकल्मष संहारकारी परमामृत है । बारह प्रकार के श्रावकधर्म और दश प्रकार के यतिधर्म को मिला कर धर्म मुख्य रूप से बाईस प्रकार का है। सम्यक्त्व मूलक पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत-यह श्रावक का बारह प्रकार का धर्म है । शांति, मार्दव, आर्जव, मुक्ति, तप, संयम, सत्य, शौच, अकिंचन और बह्मचर्य यह दश प्रकार का अरणगार धर्म अर्थात् यतिधर्म है । तीथंकर, चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव, प्रतिवासुदेव, देव, देवेन्द्र, नरेन्द्र आदि पद तथा जितने भी सांसारिक ऐश्वर्य, वैभव, सुखसाधन भोगोपभोग आदि प्रारिण को प्राप्त होते हैं, वे सब धर्म के प्रताप से ही प्राप्त होते हैं । दशविध
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