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________________ १६० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ ऊर्ध्वं लोक ] कभी संसार में नहीं लौटता । सिद्धों को जो अनन्त, अक्षय-अव्याबाध सुख प्राप्त है, उसको प्रकट करने के लिए संसार में कोई उपमा तक नहीं है । त्रिकालवर्ती सब मनुष्यों एवं सब देवों के सम्पूर्ण सुखों को यदि एकत्रित किया जाय तो वे देव - मनुष्यों के सब सुख सिद्धात्मा के सुख के अनन्तानन्तवें भाग की तुलना में भी नगण्य ही ठहरेंगे । यदि सिद्धों के सुख को पुंजीभूत किया जाय तो उसको समाने में सम्पूर्ण श्राकाश भी अपर्याप्त ही रहेगा। मुक्ति को छोड़ शेष समग्र लोक असंख्य प्रकार के दारुरण दुःखों से ओतप्रोत है । संसारी जीव अनादि काल से चौरासी लाख जीव योनियों में भटकते हुए घोरातिघोर दुस्सह दुःख भोगते चले आ रहे हैं और जब तक कोई भी जीव आठों कर्मों को नष्ट कर मुक्ति प्राप्त नहीं कर लेगा तब तक अनन्त काल तक भवाटवी में भटकता हुआा घोरातिघोर दुस्सह, दारुरण दुःख भोगता ही रहेगा । इस प्रकार तीनों लोक के स्वरूप का चिन्तन करते हुए प्रत्येक सुखाभिलाषी प्रारणी को समस्त दुःखों का सदा सर्वदा के लिए अन्त करने और भवभ्रमण से छुटकारा पाने हेतु आठों कर्मों के निर्मूलन एवं मुक्ति की प्राप्ति के लिए प्रतिपल, प्रतिक्षण प्रारणपण से प्रयत्न करते रहना चाहिये । यह है लोक स्वरूप भावना नाम की दशवीं भावना । ११. बोधिदुर्लभ भावना - संसार में बोधि वस्तुतः परम दुर्लभ हैं । बोधि का अर्थ है - सम्यक् ज्ञान, परमार्थ का ज्ञान, वास्तविक ज्ञान, सम्यक्त्व प्राप्ति अथवा सब प्रकार के दुःखों का अन्त करने वाले जिनप्रणीत धर्म का बोध । जितने भी जीव सिद्ध हुए, जितने जीव सिद्ध हो रहे हैं, और जितने भी जीव भविष्य में सिद्ध होंगे, उनकी मुक्ति में मूलभूत कारण बोधि के होने से वह सब बोधि का ही प्रताप माना गया है। बिना बोधि अर्थात् बिना परमार्थं के ज्ञान के न कभी किसी जीव ने मुक्ति प्राप्त की है और न भविष्य में ही प्राप्त कर सकेगा । इसीलिए शास्त्रों में बोधि को दुर्लभ कहा गया है । संसारी प्राणी अनादि काल से निगोद, स्थावर, सन्नर, नारक, तियंच, देवादि चौरासी लाख योनियों में भटकते चले ना रहे हैं। एक-एक निगोद शरीर में अनन्त जीव हैं और उनकी संख्या भूतकाल में जितने सिद्ध हुए हैं, उनसे अनन्तानन्त गुनी अधिक है । अनन्त काल तक निगोद में निवास करने के पश्चात् बड़ी कठिनाई से पृथ्वीकाय प्रादि पांच स्थावर काय में श्राता है । सम्पूर्ण लोक बादर - सूक्ष्म निगोद जीवों के देहों से एवं पृथ्वीकायादिपंच स्थावरों से भरा पड़ा है । जिस प्रकार अथाह सागर में गिरी हीरे की छोटी से छोटी कणिका को खोज निकालना प्रति दुष्कर है, उसी प्रकार अनन्त काल तक निगोद में भटकने पश्चात् भी पंच स्थावर योनियों में प्राना स्थावर योनियों से द्वीन्द्रिय योनि में, द्वीन्द्रिय से श्रीन्द्रिय में त्रीन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय से प्रसंज्ञी पंचेन्द्रिय में, प्रसंज्ञी के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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