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________________ [ऊर्ध्व लोक] भ० श्री सुमतिनाथ १८६ प्राणतेन्द्र प्राणत नामक स्वर्ग में रहता है । ये दोनों कल्प सौधर्म और ईशान कल्प के समान समभाग ऊँचाई पर अवस्थित हैं । इन दोनों में से प्रत्येक का आकार अर्द्ध चन्द्र के समान और दोनों को मिला कर वलयाकार है । प्रानत एवं प्राणत कल्पों से अनेक कोटानुकोटि योजन ऊपर पारण नामक ११वां और अच्युत नामक १२वां स्वर्ग है । ये दोनों कल्प भी अर्द्ध चन्द्राकार हैं और दोनों अर्द्धचन्द्राकारों को मिला कर इन दोनों का सम्मिलित आकार वलय के तुल्य बन गया है । इन दोनों कल्पों का स्वामी भी एक ही इन्द्र है जिसे अच्युतेन्द्र के नाम से अभिहित किया जाता है । पारण एवं अच्युत कल्प से अनेक कोटानुकोटि योजन ऊपर लोक के ग्रीवा स्थान में भद्र, सुभद्र, सुजात, सौमनस, प्रियदर्शन, सुदर्शन, अमोह (अमोघ), सुप्रबुद्ध और यशोधर नामक ६ ग्रैवेयक विमानप्रस्तर हैं। नौ ग्रेवेयकों के निवासी सभी देव कल्पातीत अर्थात् अहमिन्द्र हैं । ____नौ ग्रैवेयक विमान प्रस्तरों से बहुत ऊपर पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण और ऊर्ध्व-इन पांच दिशाओं में विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध नामक पांच अनुत्तर महाविमान हैं। इन पांचों अनुत्तर महाविमानों के देवों की उत्कृष्ट स्थिति ३३ सागरोपम होती है और वे सभी देव अहमिन्द्रकल्पातीत, सम्यग्दष्टि और एक भवावतारी होते हैं । प्रथम कल्प से लेकर अनत्तर विमान तक के देवों के बल, वीर्य, प्रोज, तेज, ऋद्धि, कान्ति, ऐश्वर्य, आयु आदि में उत्तरोत्तर अधिकाधिक वृद्धि होती गई है। सर्वार्थसिद्ध विमान से १२ योजन ऊँचाई पर मनुष्यलोक के ठीक ऊपर ऊर्ध्व लोक के अन्त में पैंतालीस लाख योजन, विस्तार वाली गोलाकार ईषत्प्राग्भारा नाम की पृथ्वी है । यह पृथ्वी मध्यभाग में ८ योजन मोटी और चारों ओर अनुक्रमशः घटते-घटते अन्त में मक्षिका की पंखुड़ी से भी पतली रह गई है । इसका प्राकार चांदी के छत्र के समान है । उस ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी की परिधि १,४२,३०,२४६ योजन है । इस पृथ्वी का सम्पूर्ण भूमिभाग अनुपम एवं लोक के समस्त शेष भाग की अपेक्षा परम रमणीय हैं । स्थानांग सूत्र में इस पथ्वी के ईषत, ईषत्प्राग्भारा, तन्वी, तन्वीतन्वीतरा, सिद्धि, सिद्धालया, मुक्ति और मुक्तालया ये आठ नाम और प्रज्ञापना सूत्र में इन आठ नामों के अतिरिक्त लोकाग्र, लोकाग्रस्तूपिका, लोकाग्रप्रतिवाहिनी और सर्वप्राणि-भूत-जीव-सत्वसुखावहा ये १२ नाम बताये गये हैं । संसार में परिभ्रमण कराने वाले पाठों कर्मों को समूल नष्ट कर जन्म-जरा मृत्यु से विमुक्त प्रात्माएं सिद्धगति को प्राप्त कर इस सिद्धि, सिद्धालया, मुक्ति अथवा मुक्तालया नाम की ईषत्प्रारभारा पृथ्वी पर निवास करतीं और अनन्तकाल तक अनन्त, अक्षय अव्याबाध निरुपम सुख का उपभोग करती हैं। इस सिद्धालय में पहुंचने के पश्चात् कोई आत्मा पुनः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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